वह क्या लक्ष्य जिसे पा कर फिर प्यास रह गयी शेष बताने की, क्या पाया?
उस द्वार से गु जरो जो मैं ने तुम्हारे लिए खोला है, उस अन्धकार से नहीं जिस की गहराई को बार-बार मैं ने तुम्हारी रक्षा की भावना से टटोला है ...
हम पुलकित विराट् में डूबे— पर विराट् हम में मिल जाए— ...
बूँद स्वाती की भले हो बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को भले ही फिर व्यथा के तम में बरस पर बरस बीतें एक मुक्तारूप को पकते!
अंगारे-सा--भगवान-सा अकेला। और हमारे सारे लोकाचार राख की युगों-युगों की परतें हैं...
तुम तुंग - हिमालय - श्रृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता ...
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हुए दिन बीते। उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते ...
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा ...
स्नेह-निर्झर बह गया है ! रेत ज्यों तन रह गया है ...
गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा ...