जीवन पर सौ बार मरूँ मैं क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं यदि न उचित उपयोग करूँ मैं तो फिर महाप्रलय है ...
प्रभु ने तुमको दान किए सब वांछित वस्तु विधान किए तुम प्राप्त करो उनको न अहो फिर है यह किसका दोष कहो समझो न अलभ्य किसी धन को ...
कुटी खोल भीतर जाता हूँ तो वैसा ही रह जाता हूँ तुझको यह कहते पाता हूँ- 'अतिथि, कहो क्या लाउं मैं?' ...
मुझको बहुत उन्होंने माना फिर भी क्या पूरा पहचाना?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी ...
तुम तुंग - हिमालय - श्रृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता ...
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हुए दिन बीते। उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते ...
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा ...
स्नेह-निर्झर बह गया है ! रेत ज्यों तन रह गया है ...
गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा ...