पंथ होने दो अपरिचित

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला ...

पंथ होने दो अपरिचित

महादेवी वर्मा

पंथ होने दो अपरिचित

प्राण रहने दो अकेला


घेर ले छाया अमा बन,

आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन,

और होंगे नयन सूखे,

तिल बुझे औ’ पलक रूखे,

आर्द्र चितवन में यहाँ

शत विद्युतों में दीप खेला


और होंगे चरण हारे,

अन्य हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे;

दुखव्रती निर्माण-उन्मद

यह अमरता नापते पद;

बाँध देंगे अंक-संसृति से तिमिर में स्वर्ण बेला

 

दूसरी होगी कहानी

शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी;

आज जिसपर प्यार विस्मृत ,

मैं लगाती चल रही नित,

मोतियों की हाट औ, चिनगारियों का एक मेला

 

हास का मधु-दूत भेजो,

रोष की भ्रूभंगिमा पतझार को चाहे सहेजो;

ले मिलेगा उर अचंचल

वेदना-जल स्वप्न-शतदल,

जान लो, वह मिलन-एकाकी विरह में है दुकेला

 

(संग्रह: दीपशिखा)