रंजिश ही सही

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ...

 

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ

आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत[1]का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम[2] न सही, फिर भी कभी तो
रस्मों-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ

इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिरिया[3] से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जाँ मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-ख़ुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आखिरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ

- अहमद फ़राज़

(इस ग़ज़ल के साथ तालिब बागपती जी के भी दो शेर पढ़े जाते हैं)

माना कि मुहब्बत का छुपाना है मुहब्बत
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ

जैसे तुझे आते हैं ना आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज़ ना जाने के लिए आ

शब्दार्थ:
1. प्रेम का गर्व
2. प्रेम-व्यहवार
3. रोने का स्वाद

 

साभार, वीडियो youtube.com से.

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