तुम तुंग - हिमालय - श्रृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता ...
एक युग, एक दिन, एक पल, एक क्षण पर गगन से उतर चंचला आ गई ...
घेर अंग-अंग को लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की, ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल घेर निज तरु-तन ...
कहाँ दीप है जो किसी उर्वशी की किरन-उंगलियों को छुए बिना जला हो ...
यौवन के तीर पर प्रथम था आया जब श्रोत सौन्दर्य का, वीचियों में कलरव सुख चुम्बित प्रणय का था मधुर आकर्षणमय ...
नए साल में प्यार लिखा है तुम भी लिखना ...
लाभ अपना वासना पहचानती है किन्तु मिटना प्रीति केवल जानती है ...
कोई नगमा कहीं गूँजा, कहा दिल ने के तू आई
प्रेमहीन गति, प्रगति विरुद्ध है ...
कुछ न हुआ, न हो मुझे विश्व का सुख, श्री, यदि केवल पास तुम रहो ...
तुम तुंग - हिमालय - श्रृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता ...
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हुए दिन बीते। उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते ...
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा ...
स्नेह-निर्झर बह गया है ! रेत ज्यों तन रह गया है ...
गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा ...