पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला ...
शलभ मैं शपमय वर हूँ! किसी का दीप निष्ठुर हूँ ...
कहाँ दीप है जो किसी उर्वशी की किरन-उंगलियों को छुए बिना जला हो ...
दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़ इस को हर्गिज़ न बर्मला कहिये ...
ख़ूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
सुख की तन्मयता तुम्हें मिली, पीड़ा का मिला प्रमाद मुझे फिर एक कसक बनकर अब क्यों तुम कर लेती हो याद मुझे? ...
तुम तुंग - हिमालय - श्रृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता ...
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हुए दिन बीते। उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते ...
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा ...
स्नेह-निर्झर बह गया है ! रेत ज्यों तन रह गया है ...
गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा ...