छायावाद

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पंथ होने दो अपरिचित

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला घेर ले छाया अमा बन, आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन, और होंगे नयन सूखे, तिल बुझे औ' पलक रूखे, आर्द्र चितवन में यहाँ शत विद्युतों में दीप खेला और होंगे चरण हारे, अन्य हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे; दुखव्रती निर्माण-उन्मद यह अमरता नापते पद; बाँध देंगे अंक-संसृति से तिमिर में स्वर्ण बेला   दूसरी होगी कहानी शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में...

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बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ! नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण कण में, प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में, प्रलय में मेरा पता पदचिन्‍ह जीवन में, शाप हूँ जो बन गया वरदान बंधन में कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ! बीन भी हूँ मैं... नयन में जिसके जलद वह तृषित चातक हूँ, शलभ जिसके प्राण में वह निठुर दीपक हूँ, फूल को उर में छिपाए विकल बुलबुल हूँ, एक होकर दूर तन से छाँह वह चल हूँ, दूर तुमसे हूँ अखंड सुहागिनी...

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जो मुखरित कर जाती थीं

जो मुखरित कर जाती थीं मेरा नीरव आवाहन, मैं नें दुर्बल प्राणों की वह आज सुला दी कंपन! थिरकन अपनी पुतली की भारी पलकों में बाँधी निस्पंद पड़ी हैं आँखें बरसाने वाली आँधी! जिसके निष्फल जीवन नें जल जल कर देखी राहें निर्वाण हुआ है देखो वह दीप लुटा कर चाहें! निर्घोष घटाओं में छिप तड़पन चपला सी सोती झंझा के उन्मादों में घुलती जाती बेहोशी! करुणामय को भाता है तम के परदों में आना हे नभ की दीपावलियों! तुम पल भर को बुझ जाना!

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मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!

[ सीमा ही लघुता का बन्धन है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन ...] मधुर-मधुर मेरे दीपक जल! युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल प्रियतम का पथ आलोकित कर! सौरभ फैला विपुल धूप बन मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन! दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित, तेरे जीवन का अणु गल-गल पुलक-पुलक मेरे दीपक जल! तारे शीतल कोमल नूतन माँग रहे तुझसे ज्वाला कण; विश्व-शलभ सिर धुन कहता मैं हाय, न जल पाया तुझमें मिल! सिहर-सिहर मेरे दीपक जल! जलते नभ में देख असंख्यक स्नेह-हीन...

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रे पपीहे पी कहाँ

[ प्यास ही जीवन, सकूँगी तृप्ति में मैं जी कहाँ? ...] रे पपीहे पी कहाँ?   खोजता तू इस क्षितिज से उस क्षितिज तक शून्य अम्बर, लघु परों से नाप सागर;   नाप पाता प्राण मेरे प्रिय समा कर भी कहाँ?   हँस डुबा देगा युगों की प्यास का संसार भर तू, कण्ठगत लघु बिन्दु कर तू!   प्यास ही जीवन, सकूँगी तृप्ति में मैं जी कहाँ?   चपल बन बन कर मिटेगी झूम तेरी मेघवाला! मैं स्वयं जल और ज्वाला!   दीप सी जलती...

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तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या!

तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या!   तारक में छवि, प्राणों में स्मृति पलकों में नीरव पद की गति लघु उर में पुलकों की संस्कृति भर लाई हूँ तेरी चंचल और करूँ जग में संचय क्या?   तेरा मुख सहास अरूणोदय परछाई रजनी विषादमय वह जागृति वह नींद स्वप्नमय, खेल-खेल, थक-थक सोने दे मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या?   तेरा अधर विचुंबित प्याला तेरी ही विस्मत मिश्रित हाला तेरा ही मानस मधुशाला फिर पूछूँ क्या मेरे साकी ...

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अलि, मैं कण-कण को जान चली

[मै सुख से चंचल दुख-बोझिल क्षण-क्षण का जीवन जान चली! मिटने को कर निर्माण चली ...] अलि, मैं कण-कण को जान चली सबका क्रन्दन पहचान चली   जो दृग में हीरक-जल भरते जो चितवन इन्द्रधनुष करते टूटे सपनों के मनको से जो सुखे अधरों पर झरते,   जिस मुक्ताहल में मेघ भरे जो तारो के तृण में उतरे, मै नभ के रज के रस-विष के आँसू के सब रँग जान चली।   जिसका मीठा-तीखा दंशन, अंगों मे भरता सुख-सिहरन, जो पग में चुभकर, कर...

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दीप मेरे जल अकम्पित

दीप मेरे जल अकम्पित, घुल अचंचल! सिन्धु का उच्छवास घन है, तड़ित, तम का विकल मन है, भीति क्या नभ है व्यथा का आँसुओं से सिक्त अंचल!  स्वर-प्रकम्पित कर दिशायें, मीड़, सब भू की शिरायें, गा रहे आंधी-प्रलय तेरे लिये ही आज मंगल   मोह क्या निशि के वरों का, शलभ के झुलसे परों का साथ अक्षय ज्वाल का तू ले चला अनमोल सम्बल!   पथ न भूले, एक पग भी, घर न खोये, लघु विहग भी, स्निग्ध लौ की तूलिका से  आँक सबकी छाँह...

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जो तुम आ जाते एक बार

जो तुम आ जाते एक बार   कितनी करूणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणों का तार तार अनुराग भरा उन्माद राग   आँसू लेते वे पथ पखार जो तुम आ जाते एक बार   हँस उठते पल में आर्द्र नयन धुल जाता होठों से विषाद छा जाता जीवन में बसंत लुट जाता चिर संचित विराग   आँखें देतीं सर्वस्व वार जो तुम आ जाते एक बार

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प्रिय मेरे गीले नयन बनेंगे आरती!

प्रिय मेरे गीले नयन बनेंगे आरती!   श्वासों में सपने कर गुम्फित, बन्दनवार वेदना- चर्चित, भर दुख से जीवन का घट नित, मूक क्षणों में मधुर भरुंगी भारती!   दृग मेरे यह दीपक झिलमिल, भर आँसू का स्नेह रहा ढुल, सुधि तेरी अविराम रही जल, पद-ध्वनि पर आलोक रहूँगी वारती!   यह लो प्रिय ! निधियोंमय जीवन, जग की अक्षय स्मृतियों का धन, सुख-सोना करुणा-हीरक-कण, तुमसे जीता, आज तुम्हीं को हारती!

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