प्रार्थना

गहन है यह अंधकारा

गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा। खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर, बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर इस गगन में नहीं दिनकर; नही शशधर, नही तारा। कल्पना का ही अपार समुद्र यह, गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह, कुछ नही आता समझ में कहाँ है श्यामल किनारा। प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की, याद जिससे रहे वंचित गेह की, खोजता फिरता न पाता हुआ, मेरा हृदय हारा।

Suryakant tripathi nirala 275x153.jpg

भर देते हो

भर देते हो बार-बार, प्रिय, करुणा की किरणों से क्षुब्ध हृदय को पुलकित कर देते हो। मेरे अन्तर में आते हो, देव, निरन्तर, कर जाते हो व्यथा-भार लघु बार-बार कर-कंज बढ़ाकर; अंधकार में मेरा रोदन सिक्त धरा के अंचल को करता है क्षण-क्षण- कुसुम-कपोलों पर वे लोल शिशिर-कण तुम किरणों से अश्रु पोंछ लेते हो, नव प्रभात जीवन में भर देते हो।

Saraswati ma wikimedia 275x153.jpg

वीणावादिनी वर दे !

वर दे, वीणावादिनि वर दे ! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव         भारत में भर दे ! काट अंध-उर के बंधन-स्तर बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर; कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर         जगमग जग कर दे ! नव गति, नव लय, ताल-छंद नव नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव; नव नभ के नव विहग-वृंद को         नव पर, नव स्वर दे ! वर दे, वीणावादिनि वर दे।

Bhagwati charan verma 275x153.jpg

मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ

मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ अपने प्रकाश की रेखा तम के तट पर अंकित है निःसीम नियति का लेखा   देने वाले को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर पल भर सुख भी देखा फिर पल भर दुख भी देखा।   किस का आलोक गगन से रवि शशि उडुगन बिखराते? किस अंधकार को लेकर काले बादल घिर आते?   उस चित्रकार को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर देखा है चित्रों को बन-बनकर मिट-मिट जाते।   फिर उठना, फिर गिर पड़ना आशा है, वहीं निराशा...

Dwarika prasad maheshwaree 275x153.jpg

मेरी वीणा में स्वर भर दो

मेरी वीणा में स्वर भर दो!   मैं माँग रहा कुछ और नहीं केवल जीवन की साध यही, इसको पाने ही जीवन की साधना-सरित निर्बाध बही   उड़ सकूँ काव्य के नभ में मैं उन्मुक्त कल्पना को पर दो।   केवल तुमको अर्पित करने भावों के सुमन खिलाए हैं पहिनाने तुमको ही मैंने गीतों के हार सजाए हैं!   अपने सौरभ के रस-कण से हर भाव-सुमन सुरभित कर दो।   मैं दीपक वह जिसके उर में बस एक स्नेह की राग भरी जिसने तिल-तिल जल-जल...

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थके हुए कलाकार से

सृजन की थकन भूल जा देवता! अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,   अभी तो पलक में नहीं खिल सकी  नवल कल्पना की मधुर चाँदनी  अभी अधखिली ज्योत्सना की कली  नहीं ज़िन्दगी की सुरभि में सनी    अभी तो पड़ी है धरा अधबनी, अधूरी धरा पर नहीं है कहीं    अभी स्वर्ग की नींव का भी पता! सृजन की थकन भूल जा देवता! रुका तू गया रुक जगत का सृजन  तिमिरमय नयन में डगर भूल कर    कहीं खो गई रोशनी की किरन  घने बादलों में कहीं सो गया  ...

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विपदा से मेरी रक्षा करना

विपदा से मेरी रक्षा करना मेरी यह प्रार्थना नहीं, विपदा से मैं डरूँ नहीं, इतना ही करना।   दुख-ताप से व्यथित चित्त को भले न दे सको सान्त्वना मैं दुख पर पा सकूँ जय।   भले मेरी सहायता न जुटे अपना बल कभी न टूटे, जग में उठाता रहा क्षति और पाई सिर्फ़ वंचना तो भी मन में कभी न मानूँ क्षय।   तुम मेरी रक्षा करना यह मेरी नहीं प्रार्थना, पार हो सकूँ बस इतनी शक्ति चाहूँ।   मेरा भार हल्का कर भले न दे सको सान्त्वना...

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मुझे झुका दो, मुझे झुका दो

मुझे झुका दो,मुझे झुका दो   अपने चरण तल में, करो मन विगलित, जीवन विसर्जित नयन जल में. अकेली हूँ मैं अहंकार के उच्च शिखर पर- माटी कर दो पथरीला आसन, तोड़ो बलपूर्वक. मुझे झुका दो,मुझे झुका दो   अपने चरण तल में, किस पर अभिमान करूँ व्यर्थ जीवन में भरे घर में शून्य हूँ मैं बिन तुम्हारे. दिनभर का कर्म डूबा मेरा अतल में अहं की, सांध्य-वेला की पूजा भी हो न जाए विफल कहीं. मुझे झुका दो,मुझे झुका दो   अपने चरण तल में.

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जग-जीवन में जो चिर महान

जग-जीवन में जो चिर महान, सौंदर्य-पूर्ण औ सत्य-प्राण, मैं उसका प्रेमी बनूँ, नाथ! जिसमें मानव-हित हो समान! जिससे जीवन में मिले शक्ति, छूटे भय, संशय, अंध-भक्ति; मैं वह प्रकाश बन सकूँ, नाथ! मिट जावें जिसमें अखिल व्यक्ति! दिशि-दिशि में प्रेम-प्रभा प्रसार, हर भेद-भाव का अंधकार, मैं खोल सकूँ चिर मुँदे, नाथ! मानव के उर के स्वर्ग-द्वार! पाकर, प्रभु! तुमसे अमर दान करने मानव का परित्राण, ला सकूँ विश्व में एक बार फिर...

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