ऐ दिल ले आ कहीं से, मुठ्ठी भर प्यार मुझे माना नहीं धूप सा सस्ता, दिल के दाम पे तो मिलेगा ...
लोकतंत्र का हमें अब, पूरा स्वाद मिलना चाहिए
शाम का स्याह आँचल पल पल सघन होकर ढक रहा उसकी उदासी ...
एक बार नदी बोली ! मैँ यूँ ही अविरल बहती जाऊँ ।..
तुम तुंग - हिमालय - श्रृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता ...
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हुए दिन बीते। उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते ...
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा ...
स्नेह-निर्झर बह गया है ! रेत ज्यों तन रह गया है ...
गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा ...