यह जूता परियों का जूता, यह जूता मणियों का जूता ...
अबस नादानियों पर आप-अपनी नाज़ करते हैं अभी देखी कहाँ हैं आप ने नादानियाँ मेरी ...
यह संध्या फूली सजीली ! आज बुलाती हैं विहगों को नीड़ें बिन बोले; रजनी ने नीलम-मन्दिर के वातायन खोले ...
सहज-सहज पग धर आओ उतर; देखें वे सभी तुम्हें पथ पर ...
वारूँ सौ-सौ श्वास एक प्यारी उसांस पर, हारूँ अपने प्राण, दैव, तेरे विलास पर ...
अब निशा देती निमंत्रण! महल इसका तम-विनिर्मित, ज्वलित इसमें दीप अगणित ...
केशर की, कलि की पिचकारी पात-पात की गात सँवारी ...
एक-एक, दो-दो बूँदों में बंधा सिन्धु का मेला ...
वायु बहती शीत-निष्ठुर! ताप जीवन श्वास वाली ...
शलभ मैं शपमय वर हूँ! किसी का दीप निष्ठुर हूँ ...
तुम तुंग - हिमालय - श्रृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता ...
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हुए दिन बीते। उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते ...
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा ...
स्नेह-निर्झर बह गया है ! रेत ज्यों तन रह गया है ...
गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा ...