कविताएँ

हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियो। श्रवण खोलो¸ रूक सुनो¸ विकल यह नाद कहां से आता है। है आग लगी या कहीं लुटेरे लूट रहे? वह कौन दूर पर गांवों में चिल्लाता है? जनता की छाती भिदें और तुम नींद करो¸ अपने भर तो यह जुल्म नहीं होने दूँगा। तुम बुरा कहो या भला¸ मुझे परवाह नहीं¸ पर दोपहरी में तुम्हें नहीं सोने दूँगा।। हो कहां अग्निधर्मा नवीन ऋषियो? जागो¸ कुछ नयी आग¸ नूतन ज्वाला की सृष्टि करो। शीतल प्रमाद से ऊंघ रहे हैं जो¸ उनकी मखमली सेज पर चिनगारी की वृष्टि करो। गीतों...

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप से तुम तुम से तू होने लगी चाहिए पैग़ामबर दोने तरफ़ लुत्फ़ क्या जब दू-ब-दू होने लगी मेरी रुस्वाई की नौबत आ गई उनकी शोहरत की क़ू-ब-कू़ होने लगी नाजि़र बढ़ गई है इस क़दर आरजू की आरजू होने लगी अब तो मिल कर देखिए क्या रंग हो फिर हमारी जुस्तजू होने लगी 'दाग़' इतराए हुए फिरते हैं आप शायद उनकी आबरू होने लगी.

अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी

हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं बेचारी को। पर वो चीं-चीं करती है घर में तो वो नहीं रहेगी!

भारत महिमा

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव   वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव 

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लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो

लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा। उन्ही बीजों को नये पर लगे, उन्ही पौधों से नया रस झिरा। उन्ही खेतों पर गये हल चले, उन्ही माथों पर गये बल पड़े, उन्ही पेड़ों पर नये फल फले, जवानी फिरी जो पानी फिरा। पुरवा हवा की नमी बढ़ी, जूही के जहाँ की लड़ी कढ़ी, सविता ने क्या कविता पढ़ी, बदला है बादलों से सिरा। जग के अपावन धुल गये, ढेले गड़ने वाले थे घुल गये, समता के दृग दोनों तुल गये, तपता गगन घन से घिरा ।

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तुम हमारे हो

नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हु‌ए दिन बीते। उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते। ताब बेताब हु‌ई हठ भी हटी नाम अभिमान का भी छोड़ दिया। देखा तो थी माया की डोर कटी सुना वह कहते हैं, हाँ खूब किया। पर अहो पास छोड़ आते ही वह सब भूत फिर सवार हु‌ए। मुझे गफलत में ज़रा पाते ही फिर वही पहले के से वार हु‌ए। एक भी हाथ सँभाला न गया और कमज़ोरों का बस क्या है। कहा - निर्दय, कहाँ है तेरी दया, मुझे दुख देने में जस क्या है।...

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स्नेह-निर्झर बह गया है

स्नेह-निर्झर बह गया है ! रेत ज्यों तन रह गया है । आम की यह डाल जो सूखी दिखी, कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी नहीं जिसका अर्थ-           जीवन दह गया है ।" "दिये हैं मैने जगत को फूल-फल, किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल; पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल-- ठाट जीवन का वही           जो ढह गया है ।" अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा, श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा । बह रही है हृदय पर केवल अमा; मै अलक्षित हूँ; यही...

गहन है यह अंधकारा

गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा। खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर, बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर इस गगन में नहीं दिनकर; नही शशधर, नही तारा। कल्पना का ही अपार समुद्र यह, गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह, कुछ नही आता समझ में कहाँ है श्यामल किनारा। प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की, याद जिससे रहे वंचित गेह की, खोजता फिरता न पाता हुआ, मेरा हृदय हारा।

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भर देते हो

भर देते हो बार-बार, प्रिय, करुणा की किरणों से क्षुब्ध हृदय को पुलकित कर देते हो। मेरे अन्तर में आते हो, देव, निरन्तर, कर जाते हो व्यथा-भार लघु बार-बार कर-कंज बढ़ाकर; अंधकार में मेरा रोदन सिक्त धरा के अंचल को करता है क्षण-क्षण- कुसुम-कपोलों पर वे लोल शिशिर-कण तुम किरणों से अश्रु पोंछ लेते हो, नव प्रभात जीवन में भर देते हो।

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भारती वन्दना

भारती, जय, विजय करे कनक-शस्य-कमल धरे! लंका पदतल-शतदल गर्जितोर्मि सागर-जल धोता शुचि चरण-युगल स्तव कर बहु अर्थ भरे! तरु-तण वन-लता-वसन अंचल में खचित सुमन गंगा ज्योतिर्जल-कण धवल-धार हार लगे! मुकुट शुभ्र हिम-तुषार प्राण प्रणव ओंकार ध्वनित दिशाएँ उदार शतमुख-शतरव-मुखरे!

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