धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ! बहुत बार आई-गई...
अंधियार ढल कर ही रहेगा आंधियां चाहें उठाओ, बिजलियां चाहें गिराओ, जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर...
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...