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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (११ फरवरी १८९६ - १५ अक्टूबर १९६१) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं।1930 में प्रकाशित अपने काव्य संग्रह परिमल की भूमिका में वे लिखते हैं- "मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।"

इस लेखक की रचनाएँ

जागो फिर एक बार

जागो फिर एक बार ! समर में अमर कर प्राण, गान गाये महासिन्धु-से सिन्धु-नद-तीरवासी ! सैन्धव...

सहज

सहज-सहज पग धर आओ उतर; देखें वे सभी तुम्हें पथ पर। वह जो सिर बोझ लिये आ रहा, वह जो बछड़े को नहला...

केशर की, कलि की पिचकारी

केशर की, कलि की पिचकारी पात-पात की गात सँवारी । राग-पराग-कपोल किए हैं, लाल-गुलाल अमोल लिए हैं तरू-तरू...

उत्साह

बादल, गरजो!-- घेर घेर घोर गगन, धाराधर जो! ललित ललित, काले घुँघराले, बाल कल्पना के-से पाले, विद्युत-छबि...

प्रेयसी

घेर अंग-अंग को लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की, ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल घेर निज तरु-तन। ...

रेखा

यौवन के तीर पर प्रथम था आया जब श्रोत सौन्दर्य का, वीचियों में कलरव सुख चुम्बित प्रणय का था मधुर आकर्षणमय,...

मेरी छबि ला दो

मेरी छबि उर-उर में ला दो! मेरे नयनों से ये सपने समझा दो! जिस स्वर से भरे नवल नीरद, हुए प्राण पावन...

वनबेला

वर्ष का प्रथम पृथ्वी के उठे उरोज मंजु पर्वत निरुपम किसलयों बँधे, पिक-भ्रमर-गुंज भर मुखर प्राण रच रहे...

खेलूँगी कभी न होली

खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं हमजोली । यह आँख नहीं कुछ बोली, यह हुई श्याम की तोली, ऐसी भी रही...

नारायण मिलें हँस अन्त में

याद है वह हरित दिन बढ़ रहा था ज्योति के जब सामने मैं देखता दूर-विस्तृत धूम्र-धूसर पथ भविष्यत का विपुल...

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खेलूँगी कभी न होली

खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...

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सब बुझे दीपक जला लूं

सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...

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पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है

पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...

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हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

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धूप सा तन दीप सी मैं

धूप सा तन दीप सी मैं!  उड़ रहा...

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