भर देते हो बार-बार, प्रिय, करुणा की किरणों से क्षुब्ध हृदय को पुलकित कर देते हो। मेरे अन्तर में आते हो, देव, निरन्तर, कर जाते हो व्यथा-भार लघु बार-बार कर-कंज बढ़ाकर; अंधकार में मेरा रोदन सिक्त धरा के अंचल को करता है क्षण-क्षण- कुसुम-कपोलों पर वे लोल शिशिर-कण तुम किरणों से अश्रु पोंछ लेते हो, नव प्रभात जीवन में भर देते हो।
मनाना चाहता है आज ही? -तो मान ले त्यौहार का दिन आज ही होगा! उमंगें यूँ अकारण ही नहीं उठतीं, न अनदेखे इशारे पर कभी यूँ नाचता मन; खुले से लग रहे हैं द्वार मंदिर के बढ़ा पग- मूर्ति के शृंगार का दिन आज ही होगा! न जाने आज क्यों दिल चाहता है- स्वर मिला कर अनसुने स्वर में किसी की कर उठे जयकार! न जाने क्यूँ बिना पाए हुए भी दान याचक मन, विकल है व्यक्त करने के लिए आभार! कोई तो, कहीं तो प्रेरणा...
विपदा से मेरी रक्षा करना मेरी यह प्रार्थना नहीं, विपदा से मैं डरूँ नहीं, इतना ही करना। दुख-ताप से व्यथित चित्त को भले न दे सको सान्त्वना मैं दुख पर पा सकूँ जय। भले मेरी सहायता न जुटे अपना बल कभी न टूटे, जग में उठाता रहा क्षति और पाई सिर्फ़ वंचना तो भी मन में कभी न मानूँ क्षय। तुम मेरी रक्षा करना यह मेरी नहीं प्रार्थना, पार हो सकूँ बस इतनी शक्ति चाहूँ। मेरा भार हल्का कर भले न दे सको सान्त्वना...
मुझे झुका दो,मुझे झुका दो अपने चरण तल में, करो मन विगलित, जीवन विसर्जित नयन जल में. अकेली हूँ मैं अहंकार के उच्च शिखर पर- माटी कर दो पथरीला आसन, तोड़ो बलपूर्वक. मुझे झुका दो,मुझे झुका दो अपने चरण तल में, किस पर अभिमान करूँ व्यर्थ जीवन में भरे घर में शून्य हूँ मैं बिन तुम्हारे. दिनभर का कर्म डूबा मेरा अतल में अहं की, सांध्य-वेला की पूजा भी हो न जाए विफल कहीं. मुझे झुका दो,मुझे झुका दो अपने चरण तल में.
तेरे घर के द्वार बहुत हैं, किसमें हो कर आऊं मैं? सब द्वारों पर भीड़ मची है, कैसे भीतर जाऊं मैं? द्बारपाल भय दिखलाते हैं, कुछ ही जन जाने पाते हैं, शेष सभी धक्के खाते हैं, क्यों कर घुसने पाऊं मैं? तेरे घर के द्वार बहुत हैं, किसमें हो कर आऊं मैं? तेरी विभव कल्पना कर के, उसके वर्णन से मन भर के, भूल रहे हैं जन बाहर के कैसे तुझे भुलाऊं मैं? तेरे घर के द्वार बहुत हैं, किसमें हो कर आऊं मैं? बीत...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियो। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...