विपदा से मेरी रक्षा करना मेरी यह प्रार्थना नहीं, विपदा से मैं डरूँ नहीं, इतना ही करना। दुख-ताप से व्यथित चित्त को भले न दे सको सान्त्वना मैं दुख पर पा सकूँ जय। भले मेरी सहायता न जुटे अपना बल कभी न टूटे, जग में उठाता रहा क्षति और पाई सिर्फ़ वंचना तो भी मन में कभी न मानूँ क्षय। तुम मेरी रक्षा करना यह मेरी नहीं प्रार्थना, पार हो सकूँ बस इतनी शक्ति चाहूँ। मेरा भार हल्का कर भले न दे सको सान्त्वना...
अपूर्वकुमार बी.ए. पास करके ग्रीष्मावकाश में विश्व की महान नगरी कलकत्ता से अपने गांव को लौट रहा था। मार्ग में छोटी-सी नदी पड़ती है। वह बहुधा बरसात के अन्त में सूख जाया करती है; परन्तु अभी तो सावन मास है। नदी अपने यौवन पर है, गांव की हद और बांस की जड़ों का आलिंगन करती हुई तीव्रता से बहती चली जा रही है। लगातार कई दिनों की घनघोर बरसात के बाद आज तनिक मेघ छटे हैं और नभ पटल पर सूर्य देव के दर्शन हो रहे हैं। नौका पर बैठे हुए अपूर्वकुमार के हृदय में बसी हुई...
मुझे झुका दो,मुझे झुका दो अपने चरण तल में, करो मन विगलित, जीवन विसर्जित नयन जल में. अकेली हूँ मैं अहंकार के उच्च शिखर पर- माटी कर दो पथरीला आसन, तोड़ो बलपूर्वक. मुझे झुका दो,मुझे झुका दो अपने चरण तल में, किस पर अभिमान करूँ व्यर्थ जीवन में भरे घर में शून्य हूँ मैं बिन तुम्हारे. दिनभर का कर्म डूबा मेरा अतल में अहं की, सांध्य-वेला की पूजा भी हो न जाए विफल कहीं. मुझे झुका दो,मुझे झुका दो अपने चरण तल में.
मेरा खेल साथ तुम्हारे जब होता था तब, कौन हो तुम, यह किसे पता था. तब, नहीं था भय, नहीं थी लाज मन में, पर जीवन अशांत बहता जाता था तुमने सुबह-सवेरे कितनी ही आवाज लगाई ऐसे जैसे मैं हूँ सखी तुम्हारी हँसकर साथ तुम्हारे रही दौड़ती फिरती उस दिन कितने ही वन-वनांत. ओहो, उस दिन तुमने गाए जो भी गान उनका कुछ भी अर्थ किसे पता था. केवल उनके संग गाते थे मेरे प्राण, सदा नाचता हृदय अशांत. हठात् खेल के अंत में आज देखूँ कैसी छवि-- स्तब्ध आकाश, नीरव...
मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, "बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह ‘काक' को ‘कौआ' कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।" मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। "देखो, बाबूजी, भोला कहता है - आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?" और फिर वह खेल में लग गई। मेरा घर सड़क के किनारे है। एक दिन मिनी मेरे कमरे में खेल रही...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...