नीलू की कथा उसकी माँ की कथा से इस प्रकार जुड़ी है कि एक के बिना दूसरी अपूर्ण रह जाती है। उसकी अल्सेशियन माँ उत्तरायण में लूसी के नाम से पुकारी जाती थी। हिरणी के समान वेगवती साँचे में ढली हुई देह, जिसमें व्यर्थ कहने के लिए एक तोला मांस भी नहीं था। ऊपर काला आभास देनेवाले भूरे पीताभ रोम, बुद्धिमानी का पता देनेवाली काली पर छोटी आँखें, सजग खड़े कान और सघन, रोयेंदार तथा पिछले पैरों के टखनों को छूनेवाली लम्बी पूँछ, सब कुछ उसे राजसी विशेषता देता था । थी भी...
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...