जागो फिर एक बार ! समर में अमर कर प्राण, गान गाये महासिन्धु-से सिन्धु-नद-तीरवासी ! सैन्धव तुरंगों पर चतुरंग चमू संग; ‘‘सवा-सवा लाख पर एक को चढ़ाऊँगा, गोविन्द सिंह निज नाम जब कहाऊँगा।'' किसने सुनाया यह वीर-जन-मोहन अति दुर्जय संग्राम-राग, फाग का खेला रण बारहों महीनों में ? शेरों की माँद में, आया है आज स्यार- जागो फिर एक बार ! सत् श्री अकाल, भाल-अनल धक-धक कर जला, भस्म हो गया था काल- तीनों...
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...