आँधियों ही आँधियों में उड़ गया यह जेठ का जलता हुआ दिन, मुड़ गया किस ओर, कब सूरज सुबह का गदर की दीवार के पीछे, न जाने । क्या पता कब दिन ढला, कब शाम हो आई नही है अब नही है एक भी पिछड़ा सिपाही आँधियों की फौज का बाकी हमारे बीच अब तो एक पत्ता भी खड़कता है न हिलता है हवा का नाम भी तो हो हमें अब आँधियों के शोर के बदले मिली है हब्स की बेचैन ख़ामोशी न जाने क्या हुआ सहसा, ठिठक कर, ...
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...