ये अनजान नदी की नावें जादू के-से पाल उड़ाती आती मंथर चाल। नीलम पर किरनों की साँझी एक न डोरी एक न माँझी , फिर भी लाद निरंतर लाती सेंदुर और प्रवाल! कुछ समीप की कुछ सुदूर की, कुछ चन्दन की कुछ कपूर की, कुछ में गेरू, कुछ में रेशम कुछ में केवल जाल। ये अनजान नदी की नावें जादू के-से पाल उड़ाती आती मंथर चाल।
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...