[ प्यास ही जीवन, सकूँगी तृप्ति में मैं जी कहाँ? ...] रे पपीहे पी कहाँ? खोजता तू इस क्षितिज से उस क्षितिज तक शून्य अम्बर, लघु परों से नाप सागर; नाप पाता प्राण मेरे प्रिय समा कर भी कहाँ? हँस डुबा देगा युगों की प्यास का संसार भर तू, कण्ठगत लघु बिन्दु कर तू! प्यास ही जीवन, सकूँगी तृप्ति में मैं जी कहाँ? चपल बन बन कर मिटेगी झूम तेरी मेघवाला! मैं स्वयं जल और ज्वाला! दीप सी जलती...
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...