बच्चन

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आ रही रवि की सवारी

आ रही रवि की सवारी।   नव-किरण का रथ सजा है, कलि-कुसुम से पथ सजा है, बादलों-से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी। आ रही रवि की सवारी।   विहग, बंदी और चारण, गा रहे हैं कीर्ति-गायन, छोड़कर मैदान भागी, तारकों की फ़ौज सारी। आ रही रवि की सवारी।   चाहता, उछलूँ विजय कह, पर ठिठकता देखकर यह- रात का राजा खड़ा है, राह में बनकर भिखारी। आ रही रवि की सवारी।

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अग्निपथ

वृक्ष हों भले खड़े, हों घने हों बड़े, एक पत्र छाँह भी, माँग मत, माँग मत, माँग मत, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।   तू न थकेगा कभी, तू न रुकेगा कभी, तू न मुड़ेगा कभी, कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।   यह महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु श्वेत रक्त से, लथपथ लथपथ लथपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

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लो दिन बीता लो रात गयी

सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा, डूबा, संध्या आई, छाई, सौ संध्या सी वह संध्या थी, क्यों उठते-उठते सोचा था दिन में होगी कुछ बात नई लो दिन बीता, लो रात गई   धीमे-धीमे तारे निकले, धीरे-धीरे नभ में फ़ैले, सौ रजनी सी वह रजनी थी, क्यों संध्या को यह सोचा था, निशि में होगी कुछ बात नई, लो दिन बीता, लो रात गई   चिडियाँ चहकी, कलियाँ महकी, पूरब से फ़िर सूरज निकला, जैसे होती थी, सुबह हुई, क्यों सोते-सोते सोचा था, ...

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मौन और शब्द

एक दिन मैंने मौन में शब्द को धँसाया था और एक गहरी पीड़ा, एक गहरे आनंद में, सन्निपात-ग्रस्त सा, विवश कुछ बोला था; सुना, मेरा वह बोलना दुनियाँ में काव्य कहलाया था।   आज शब्द में मौन को धँसाता हूँ, अब न पीड़ा है न आनंद है विस्मरण के सिन्धु में डूबता सा जाता हूँ, देखूँ, तह तक पहुँचने तक, यदि पहुँचता भी हूँ,  क्या पाता हूँ।

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मधुशाला

- - भाग १ - - मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला, प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला, पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा, सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।१। प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला, एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला, जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका, आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।२। प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला, अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,...

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