पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला घेर ले छाया अमा बन, आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन, और होंगे नयन सूखे, तिल बुझे औ' पलक रूखे, आर्द्र चितवन में यहाँ शत विद्युतों में दीप खेला और होंगे चरण हारे, अन्य हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे; दुखव्रती निर्माण-उन्मद यह अमरता नापते पद; बाँध देंगे अंक-संसृति से तिमिर में स्वर्ण बेला दूसरी होगी कहानी शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में...
शलभ मैं शापमय वर हूँ! किसी का दीप निष्ठुर हूँ! ताज है जलती शिखा; चिनगारियाँ शृंगारमाला; ज्वाल अक्षय कोष सी अंगार मेरी रंगशाला ; नाश में जीवित किसी की साध सुन्दर हूँ! नयन में रह किन्तु जलती पुतलियाँ आगार होंगी; प्राण में कैसे बसाऊँ कठिन अग्नि समाधि होगी; फिर कहाँ पालूँ तुझे मैं मृत्यु-मन्दिर हूँ! हो रहे झर कर दृगों से अग्नि-कण भी क्षार शीतल; पिघलते उर से निकल निश्वास बनते धूम श्यामल; एक ज्वाला के बिना मैं राख का घर हूँ! कौन...
तुम्हारे बिना आरती का दीया यह न बुझ पा रहा है न जल पा रहा है। भटकती निशा कह रही है कि तम में दिए से किरन फूटना ही उचित है, शलभ चीखता पर बिना प्यार के तो विधुर सांस का टूटना ही उचित है, इसी द्वंद्व में रात का यह मुसाफिर न रुक पा रहा है, न चल पा रहा है। तुम्हारे बिना आरती का दिया यह न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है। मिलन ने कहा था कभी मुस्करा कर हँसो फूल बन विश्व-भर को हँसाओ, मगर कह रहा है विरह अब सिसक कर झरा रात-दिन अश्रु के शव...
न रवा कहिये न सज़ा कहिये कहिये कहिये मुझे बुरा कहिये दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़ इस को हर्गिज़ न बर्मला कहिये वो मुझे क़त्ल कर के कहते हैं मानता ही न था ये क्या कहिये आ गई आप को मसिहाई मरने वालो को मर्हबा कहिये होश उड़ने लगे रक़ीबों के "दाग" को और बेवफ़ा कहिये
उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं बाइस-ए-तर्क-ए मुलाक़ात बताते भी नहीं मुंतज़िर हैं दमे रुख़सत के ये मर जाए तो जाएँ फिर ये एहसान के हम छोड़ के जाते भी नहीं सर उठाओ तो सही, आँख मिलाओ तो सही नश्शाए मैं भी नहीं, नींद के माते भी नहीं क्या कहा फिर तो कहो; हम नहीं सुनते तेरी नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं ख़ूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं मुझसे लाग़िर तेरी आँखों में खटकते तो...
कल सहसा यह सन्देश मिला सूने-से युग के बाद मुझे कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर तुम कर लेती हो याद मुझे। गिरने की गति में मिलकर गतिमय होकर गतिहीन हुआ एकाकीपन से आया था अब सूनेपन में लीन हुआ। यह ममता का वरदान सुमुखि है अब केवल अपवाद मुझे मैं तो अपने को भूल रहा, तुम कर लेती हो याद मुझे। पुलकित सपनों का क्रय करने मैं आया अपने प्राणों से लेकर अपनी कोमलताओं को मैं टकराया पाषाणों से। मिट-मिटकर...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...
केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...