सुबह

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सृष्टि मिटने पर गर्वीली

रश्मि  चुभते ही तेरा अरुण बान !  बहते कन-कन से फूट-फूट,  मधु के निर्झर से सजग गान !  इन कनक-रश्मियों में अथाह;  लेता हिलोर तम-सिंधु जाग;  बुदबुद् से बह चलते अपार,  उसमें विहगों के मधुर राग;  बनती प्रवाल का मृदुल कूल,  जो क्षितिज-रेख थी कुहर-म्लान !  नव कुन्द-कुसुम से मेघ-पुंज,  बन गए इन्द्रधनुषी वितान;  दे मृदु कलियों की चटख, ताल,  हिम-बिन्दु नचाती तरल प्राण;  धो स्वर्ण-प्रात में तिमिर-गात,  दुहराते अलि निशि-मूक तान !  ...

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ये प्रकाश ने फैलाये हैं

ये प्रकाश ने फैलाये हैं पैर, देख कर ख़ाली में अन्धकार का अमित कोष भर आया फैली व्याली में   ख़ाली में उनका निवास है, हँसते हैं, मुसकाता हूँ मैं ख़ाली में कितने खुलते हो, आँखें भर-भर लाता हूँ मैं इतने निकट दीख पड़ते हो वन्दन के, बह जाता हूँ मैं संध्या को समझाता हूँ मैं, ऊषा में अकुलाता हूँ मैं चमकीले अंगूर भर दिये दूर गगन की थाली में ये प्रकाश ने फैलाये हैं पैर, देख कर ख़ाली में।।   पत्र-पत्र पर, पुष्प-पुष्प पर कैसे राज...

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धूप सा तन दीप सी मैं

धूप सा तन दीप सी मैं!  उड़ रहा...

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केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात...

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रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...

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