वह चीनी भाई

चीनी खड़ा होकर जेब से कुछ निकालता हुआ प्रफुल्ल मुद्रा से बोला, ''सिस्तर आपका वास्ते ही लाता है, भोत बेस्त सब सेल हो गया। हम इसको पाकेट में छिपा के लाता है ...

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महादेवी वर्मा

वह दल बर्मी, चीनी, स्यामी आदि का सम्मिश्रण था। इसी से 'चोरों की बारात में अपनी अपनी होशियारी' के सिद्धांत का पालन बड़ी सतर्कता से हुआ करता। जो उसपर कृपा रखते थे उनके विरोधियों का स्नेहपात्र होकर पिटना भी उसका परम कर्तव्य हो जाता था। किसी की कोई वस्तु खोते ही उस पर संदेह की ऐसी दृष्टि आरंभ होती कि बिना चुराए ही वह चोर के समान काँपने लगता और तब उस 'चोर के घर छिछोर' की जो मरम्मत होती कि उसका स्मरण कर के चीनी की आँखें आज भी व्यथा और अपमान से भक भक जलने लगती थीं। 
सबके खाने के पात्र में बचा उच्छिष्ट एक तामचीनी के टेढ़े बर्तन में सिगार से जगह जगह जले हुए कागज़ से ढक कर रख दिया जाता था जिसे वह हरी आँखों वाली बिल्ली के साथ खाता था।
बहुत रात गए तक उसके नरक के साथी एक-एक कर आते रहते और अंगीठी के पास सिकुड़ कर लेटे हुए बालक को ठुकराते हुए निकल जाते। उनके पैरों की आहट को पढ़ने का उसे अच्छा अभ्यास हो चला था। जो हल्के पैरों को जल्दी-जल्दी रखता आता है उसे बहुत कुछ मिल गया है। जो शिथिल पैरों को घसीटता हुआ लौटता वह खाली हाथ है। जो दीवार को टटोलता हुआ लड़खड़ाते पैरों से बढ़ता वह शराब में सब खोकर बेसुध आया है। जो दहली से ठोकर खाकर धम धम पैर रखता हुआ घुसता है उसने किसी से झगड़ा मोल ले लिया है आदि का ज्ञान उसे अनजान में ही प्राप्त हो गया था।
यदि दीक्षांत संस्कार के उपरांत विद्या के उपयोग का श्रीगणेश होते ही उसकी भेंट पिता के परिचित एक चीनी व्यापारी से नहीं हो जाती तो इस साधना से प्राप्त विद्वत्ता का अंत क्या होता यह बताना कठिन है। पर संयोग ने उसके जीवन की दिशा को इस प्रकार बदल दिया कि वह कपड़े की दूकान पर व्यापारी की विद्या सीखने लगा।
प्रशंसा का पुल बाँधते-बाँधते वर्षो पुराना कपड़ा सबसे पहले उठा लाना, गज़ से इस तरह नापना कि जो रत्ती बराबर भी आगे न बढे, चाहे अँगुल भर पीछे रह जाय। रुपए से ले के पाई तक को खूब देख भाल कर लेना और लौटाते समय पुराने, खोटे पैसे विशेष रूप से खनखा-खनका कर दे डालना आदि का ज्ञान कम रहस्यमय नहीं था। पर मालिक के साथ भोजन मिलने के कारण बिल्ली के उच्छिष्ट सहभोज की आवश्यकता नहीं रही और दुकान में सोने की व्यवस्था होने से अंगीठी के पास ठोकरों से पुरस्कृत होने की विशेषता जाती रही। चीनी छोटी अवस्था में ही समझ गया था कि धन संचय से संबंध रखने वाली सभी विद्याएँ एक-सी हैं, पर मनुष्य किसी का प्रयोग प्रतिष्ठापूर्वक कर सकता है और किसी का छिपा कर।
कुछ अधिक समझदार होने पर उसने अपनी अभागी बहन को ढूँढने का बहुत प्रयत्न किया पर उसका पता न पा सका। ऐसी बालिकाओं का जीवन खतरे से खाली नहीं रहता। कभी वे मूल्य देकर खरीदी जाती हैं और कभी बिना मूल्य के गायब कर दी जाती हैं। कभी वे निराश हो कर आत्महत्या कर लेती हैं और कभी शराबी ही नशे में उन्हें जीवन से मुक्त कर देते हैं। उस रहस्य की सूत्रधारिणी विमाता भी संभवत: पुर्नविवाह कर किसी और को सुखी बनाने के लिये कहीं दूर चली गयी थी। इस प्रकार उस दिशा में खोज का मार्ग ही बंद हो गया।
इसी बीच में मालिक के काम से चीनी रंगून आया फिर दो वर्ष कलकत्ता में रहा और अन्य साथियों के साथ उसे इसि ओर आने का आदेश मिला। यहां शहर में एक चीनी जूते वाले के घर ठहरा है और सवेरे आठ से बारह और दो से छे बजे तक फेरी लगा कर कपड़े बेचता रहता है।
चीनी की दो इच्छाएँ हैं, ईमानदार बनने की और बहन को ढूँढ लेने की- जिनमें से एक की पूर्ति तो स्वयं उसी के हाथ में है और दूसरी के लिए वह प्रतिदिन भगवान बुद्ध से प्रार्थना करता है।
बीच-बीच में वह महीनों के लिए बाहर चला जाता था, पर लौटते ही "सिस्तर का वास्ते ई लाता है" कहता हुआ कुछ लेकर उपस्थित हो जाता। इस प्रकार देखते-देखते मैं इतनी अभ्यस्त हो चुकी थी कि जब एक दिन वह 'सिस्तर का वास्ते' कह कर और शब्दों की खोज करने लगा तब मैं उसकी कठिनाई न समझ कर हँस पड़ी। धीर-धीरे पता चला - बुलावा आया है, यह लड़ने के लिए चाइना जाएगा। इतनी जल्दी कपड़े कहाँ बेचे और न बेचने पर मालिक को हानि पहुँचा कर बेइमान कैसे बने? यदि मैं उसे आवश्यक रुपया देकर सब कपड़े ले लूँ, तो वह मालिक का हिसाब चुका कर तुरंत देश की ओर चल दे।
किसी दिन पिता का पता पूछे जाने पर वह हकलाया था- आज भी संकोच से हकला रहा था। मैंने सोचने का अवकाश पाने के लिए प्रश्न किया, "तुम्हारे तो कोई है ही नहीं, फिर बुलावा किसने भेजा?" चीनी की आँखें विस्मय से भर कर पूरी खुल गईं- "हम कब बोला हमारा चाइना नहीं है? हम कब ऐसा बोला सिस्तर?" मुझे स्वयं अपने प्रश्न पर लज्जा आई, उसका इतना बड़ा चीन रहते वह अकेला कैसे होगा!
मेरे पास रुपया रहना ही कठिन है, अधिक रुपए की चर्चा ही क्या! पर कुछ अपने पास खोज ढूँढ़ कर और कुछ दूसरों से उधार लेकर मैंने चीनी के जाने का प्रबंध किया। मुझे अंतिम अभिवादन कर जब वह चंचल पैरों से जाने लगा, तब मैंने पुकार कर कहा, ''यह गज तो लेते जाओ!'' चीनी सहज स्मित के साथ घूमकर "सिस्तर का वास्ते" ही कह सका। शेष शब्द उसके हकलाने में खो गए।
और आज कई वर्ष हो चुके हैं- चीनी को फिर देखने की संभावना नहीं। उसकी बहन से मेरा कोई परिचय नहीं, पर न जाने क्यों वे दोनों भाई बहन मेरे स्मृतिपट से हटते ही नहीं।
चीनी की गठरी में से कई थान मैं अपने ग्रामीण बालकों के कुर्ते बना-बना कर खर्च कर चुकी हूँ परंतु अब भी तीन थान मेरी अलमारी में रखे हैं और लोहे का गज दीवार के कोने में खड़ा है। एक बार जब इन थानों को देख कर एक खादी भक्त बहन ने आक्षेप किया था - जो लोग बाहर विशुद्ध खद्दरधारी होते हैं वे भी विदेशी रेशम के थान ख़रीद कर रखते है, इसी से तो देश की उन्नति नहीं होती- तब मैं बड़े कष्ट से हँसी रोक सकी।
वह जन्म का दुखियारा मातृ पितृ हीन और बहन से बिछुड़ा हुआ चीनी भाई अपने समस्त स्नेह के एकमात्र आधार चीन में पहुँचने का आत्मतोष पा गया है, इसका कोई प्रमाण नहीं- पर मेरा मन यही कहता है।

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