अंजलि के फूल गिरे जाते हैं आये आवेश फिरे जाते हैं। चरण-ध्वनि पास-दूर कहीं नहीं साधें आराधनीय रही नहीं उठने,उठ पड़ने की बात रही साँसों से गीत बे-अनुपात रही बागों में पंखनियाँ झूल रहीं कुछ अपना, कुछ सपना भूल रहीं फूल-फूल धूल लिये मुँह बाँधे किसको अनुहार रही चुप साधे दौड़ के विहार उठो अमित रंग तू ही `श्रीरंग' कि मत कर विलम्ब बँधी-सी पलकें मुँह खोल उठीं कितना रोका कि मौन बोल उठीं आहों का रथ माना...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियो। श्रवण...
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...
हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, ...