प्रकृति

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सृष्टि मिटने पर गर्वीली

रश्मि  चुभते ही तेरा अरुण बान !  बहते कन-कन से फूट-फूट,  मधु के निर्झर से सजग गान !  इन कनक-रश्मियों में अथाह;  लेता हिलोर तम-सिंधु जाग;  बुदबुद् से बह चलते अपार,  उसमें विहगों के मधुर राग;  बनती प्रवाल का मृदुल कूल,  जो क्षितिज-रेख थी कुहर-म्लान !  नव कुन्द-कुसुम से मेघ-पुंज,  बन गए इन्द्रधनुषी वितान;  दे मृदु कलियों की चटख, ताल,  हिम-बिन्दु नचाती तरल प्राण;  धो स्वर्ण-प्रात में तिमिर-गात,  दुहराते अलि निशि-मूक तान !  ...

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बदरिया थम-थमकर झर री !

बदरिया थम-थनकर झर री ! सागर पर मत भरे अभागन गागर को भर री ! बदरिया थम-थमकर झर री ! एक-एक, दो-दो बूँदों में बंधा सिन्धु का मेला, सहस-सहस बन विहंस उठा है यह बूँदों का रेला। तू खोने से नहीं बावरी, पाने से डर री ! बदरिया थम-थमकर झर री! जग आये घनश्याम देख तो, देख गगन पर आगी, तूने बूंद, नींद खितिहर ने साथ-साथ ही त्यागी। रही कजलियों की कोमलता  झंझा को बर री ! बदरिया थम-थमकर झर री !

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दूबों के दरबार में

क्या आकाश उतर आया है दूबों के दरबार में? नीली भूमि हरी हो आई इस किरणों के ज्वार में ! क्या देखें तरुओं को उनके फूल लाल अंगारे हैं; बन के विजन भिखारी ने वसुधा में हाथ पसारे हैं। नक्शा उतर गया है, बेलों की अलमस्त जवानी का युद्ध ठना, मोती की लड़ियों से दूबों के पानी का! तुम न नृत्य कर उठो मयूरी, दूबों की हरियाली पर; हंस तरस खाएँ उस मुक्ता बोने वाले माली पर! ऊँचाई यों फिसल पड़ी है नीचाई के प्यार में! क्या आकाश उतर आया है दूबों...

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तुम्हारा चित्र

मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया कुछ नीले कुछ श्वेत गगन पर  हरे-हरे घन श्यामल वन पर द्रुत असीम उद्दण्ड पवन पर  चुम्बन आज पवित्र बन गया, मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया। तुम आए, बोले, तुम खेले दिवस-रात्रि बांहों पर झेले साँसों में तूफान सकेले जो ऊगा वह मित्र बन गया, मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया। ये टिमटिम-पंथी ये तारे पहरन मोती जड़े तुम्हारे विस्तृत! तुम जीते हम हारे! चाँद साथ सौमित्र बन गया। मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।

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जीवन का झरना

यह जीवन क्या है? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है। सुख-दुख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है।    कब फूटा गिरि के अंतर से? किस अंचल से उतरा नीचे?  किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे?    निर्झर में गति है, जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है!  धुन एक सिर्फ़ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है।    बाधा के रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता,  बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता।    लहरें उठती हैं,...

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इस रिमझिम में चाँद हँसा है

1. खिड़की खोल जगत को देखो,  बाहर भीतर घनावरण है शीतल है वाताश, द्रवित है दिशा, छटा यह निरावरण है मेघ यान चल रहे झूमकर शैल-शिखर पर प्रथम चरण है! बूँद-बूँद बन छहर रहा यह जीवन का जो जन्म-मरण है! जो सागर के अतल-वितल में  गर्जन-तर्जन है, हलचल है; वही ज्वार है उठा यहाँ पर शिखर-शिखर में चहल-पहल है! 2. फुहियों में पत्तियाँ नहाई आज पाँव तक भीगे तरुवर, उछल शिखर से शिखर पवन भी  झूल रहा तरु की बाँहों पर; निद्रा भंग, दामिनी चौंकी, झलक...

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संध्या सुन्दरी

दिवसावसान का समय- मेघमय आसमान से उतर रही है वह संध्या-सुन्दरी, परी सी, धीरे, धीरे, धीरे तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास, मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर, किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास। हँसता है तो केवल तारा एक- गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से, हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक। अलसता की-सी लता, किंतु कोमलता की वह कली, सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह, छाँह सी अम्बर-पथ से चली। ...

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बादल आए झूम के

बादल आए झूम के। आसमान में घूम के। बिजली चमकी चम्म-चम। पानी बरसा झम्म-झम।। हवा चली है जोर से। नाचे जन-मन मोर-से। फिसला पाँव अरर-धम। चारों खाने चित्त हम।। मेघ गरजते घर्र-घों। मेढक गाते टर्र-टों। माँझी है उस पार रे। नाव पड़ी मँझधार रे।। शाला में अवकाश है। सुंदर सावन मास है। हाट-बाट सब बंद है। अच्छा जी आनंद है।। पंछी भीगे पंख ले। ढूँढ़ रहे हैं घोंसले। नद-नाले नाद पुकारते।। हिरन चले मैदान से। गीदड़ निकले माँद से। गया सिपाही फौज में।...

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गीत बनकर मैं मिलूँ

गीत बनकर मैं मिलूँ यदि रागिनी बन आ सको तुम।   सो रहा है दिन, गगन की गोद में रजनी जगी है, झलमलाती नील तारों से जड़ी साड़ी फबी है। गूँथ कर आकाश-गंगा मोतियों के हार लाई, पहिन कर रजनी उसे निज वक्ष पर कुछ मुस्कुराई। चित्र अंकित कर रही धरती सरित के तरल पट पर, समझ यह अनुचित, समीरण ने हिलाया हाथ सत्वर। इस मिलन की रात का प्रिय चित्र बनकर मैं मिलूँ रेखा अगर बन आ सको तुम।   जा रही है रात, आया प्रात कलियाँ मुस्कराईं, मधुप का...

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सरिता

यह लघु सरिता का बहता जल कितना शीतल¸ कितना निर्मल¸ हिमगिरि के हिम से निकल-निकल¸ यह विमल दूध-सा हिम का जल¸ कर-कर निनाद कल-कल¸ छल-छल बहता आता नीचे पल पल  तन का चंचल मन का विह्वल। यह लघु सरिता का बहता जल।। निर्मल जल की यह तेज़ धार करके कितनी श्रृंखला पार बहती रहती है लगातार गिरती उठती है बार बार रखता है तन में उतना बल यह लघु सरिता का बहता जल।। एकांत प्रांत निर्जन निर्जन यह वसुधा के हिमगिरि का वन रहता मंजुल मुखरित क्षण क्षण...

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लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो

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