दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार1 नहीं हूँ बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ ज़िन्दा...
कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्क़िल है । यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की महफ़िल है...
शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा आप मौजूद हैं हाज़िर...
समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का 'अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का गर शैख़-ओ-बहरमन[1] सुनें...
हंगामा है क्यूँ बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है ना-तजुर्बाकारी...
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...