शाम का स्याह आँचल

शाम का स्याह आँचल पल पल सघन होकर ढक रहा उसकी उदासी ...

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शाम का स्याह आँचल

पल पल सघन होकर

ढक रहा उसकी उदासी।

गोमती का ये कल कल

सुना रहा है हर पल

मानो कोई गीत बासी।

सृष्टि क्यों दिख रही है कुछ थकित सी!

व्यग्र हवा के झोंके

बेध रहे हैं तन मन

वृक्ष सारे काँपते हैं ।

नभचरों की चहचहाहट

वापसी की है चाहत

खुले परों से गगन को नापते हैं।

नीड़ में छिपी आँखें

निहारती चकित सी!

सुघर सुबह के

अप्रतिम यौवन का

कैसा क्रूर अवसान।

तिमिर पक्ष विजयी

पस्त है प्रकाश

खत्म हुआ घमासान।

कमल दल में बन्द

भ्रमर की आत्मा व्यथित सी!

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