फागुन की शाम

मुझे पुकारे! ताना मारे, भर आएँ, आँखड़ियाँ! उन्मन, ये फागुन की शाम है ...

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धर्मवीर भारती

घाट के रस्ते

उस बँसवट से

इक पीली-सी चिड़िया

उसका कुछ अच्छा-सा नाम है!

 

मुझे पुकारे!

ताना मारे,

भर आएँ, आँखड़ियाँ! उन्मन, 

ये फागुन की शाम है!

 

घाट की सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं

झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं

तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी

यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी

 

आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी!

अच्छा अब जाने दो मुझको घर में कितना काम है!

 

इस सीढ़ी पर, यहीं जहाँ पर लगी हुई है काई

फिसल पड़ी थी मैं, फिर बाँहों में कितना शरमायी!

यहीं न तुमने उस दिन तोड़ दिया था मेरा कंगन!

यहाँ न आऊँगी अब, जाने क्या करने लगता मन!

 

लेकिन तब तो कभी न हममें तुममें पल-भर बनती!

तुम कहते थे जिसे छाँह है, मैं कहती थी घाम है!

अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों भटकी डोले

कभी-कभी तो बड़े सकारे कोयल ऐसे बोले

ज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटा

मेरे सँग-सँग अकसर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा

 

पर फिर भी कुछ कभी न जाहिर करती हूँ इस डर से

कहीं न कोई कह दे कुछ, ये ऋतु इतनी बदनाम है!

 

ये फागुन की शाम है!

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