मेरी वीणा में स्वर भर दो

मैं राही एकाकी तो क्या मंजिल तय करनी है, मुझको; रहने दो राह अपरिचित ही इसकी परवाह नहीं मुझको ...

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द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

मेरी वीणा में स्वर भर दो!

 

मैं माँग रहा कुछ और नहीं

केवल जीवन की साध यही,

इसको पाने ही जीवन की

साधना-सरित निर्बाध बही

 

उड़ सकूँ काव्य के नभ में मैं

उन्मुक्त कल्पना को पर दो।

 

केवल तुमको अर्पित करने

भावों के सुमन खिलाए हैं

पहिनाने तुमको ही मैंने

गीतों के हार सजाए हैं!

 

अपने सौरभ के रस-कण से

हर भाव-सुमन सुरभित कर दो।

 

मैं दीपक वह जिसके उर में

बस एक स्नेह की राग भरी

जिसने तिल-तिल जल-जल अविरल

निशि के केशों में माँग भरी।

 

बुझ जाय न साँसों की बाती

छू तनिक उसे ऊपर कर दो।

 

मैं राही एकाकी तो क्या

मंजिल तय करनी है, मुझको;

रहने दो राह अपरिचित ही

इसकी परवाह नहीं मुझको।

 

कर लूँगा मैं जग से परिचय

केवल गीतों में लय भर दो।



- (संग्रह: फूल और शूल)


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