भीड़ों में जब-जब जिस-जिस से आँखें मिलती हैं वह सहसा दिख जाता है मानव अंगारे-सा--भगवान-सा अकेला। और हमारे सारे लोकाचार राख की युगों-युगों की परतें हैं।
नहीं जानती जो अपने को खिली हुई-- विश्व-विभव से मिली हुई,-- नहीं जानती सम्राज्ञी अपने को,-- नहीं कर सकीं सत्य कभी सपने को, वे किसान की नयी बहू की आँखें ज्यों हरीतिमा में बैठे दो विहग बन्द कर पाँखें; वे केवल निर्जन के दिशाकाश की, प्रियतम के प्राणों के पास-हास की, भीरु पकड़ जाने को हैं दुनियाँ के कर से-- बढ़े क्यों न वह पुलकित हो कैसे भी वर से।
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...