श्रृंगार रस

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धूप सा तन दीप सी मैं

धूप सा तन दीप सी मैं!  उड़ रहा नित एक सौरभ-धूम-लेखा में बिखर तन, खो रहा निज को अथक आलोक-सांसों में पिघल मन अश्रु से गीला सृजन-पल, औ' विसर्जन पुलक-उज्ज्वल, आ रही अविराम मिट मिट स्वजन ओर समीप सी मैं! सघन घन का चल तुरंगम चक्र झंझा के बनाये, रश्मि विद्युत ले प्रलय-रथ पर भले तुम श्रान्त आये, पंथ में मृदु स्वेद-कण चुन, छांह से भर प्राण उन्मन, तम-जलधि में नेह का मोती रचूंगी सीप सी मैं! धूप-सा तन दीप सी मैं!

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संध्या सुन्दरी

दिवसावसान का समय- मेघमय आसमान से उतर रही है वह संध्या-सुन्दरी, परी सी, धीरे, धीरे, धीरे तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास, मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर, किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास। हँसता है तो केवल तारा एक- गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से, हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक। अलसता की-सी लता, किंतु कोमलता की वह कली, सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह, छाँह सी अम्बर-पथ से चली। ...

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रुपसि तेरा घन-केश पाश!

रुपसि तेरा घन-केश पाश! श्यामल श्यामल कोमल कोमल, लहराता सुरभित केश-पाश!   नभगंगा की रजत धार में, धो आई क्या इन्हें रात? कम्पित हैं तेरे सजल अंग, सिहरा सा तन हे सद्यस्नात! भीगी अलकों के छोरों से चूती बूँदे कर विविध लास! रुपसि तेरा घन-केश पाश!   सौरभ भीना झीना गीला लिपटा मृदु अंजन सा दुकूल; चल अञ्चल से झर झर झरते पथ में जुगनू के स्वर्ण-फूल; दीपक से देता बार बार तेरा उज्जवल चितवन-विलास! रुपसि तेरा...

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धूप सा तन दीप सी मैं

धूप सा तन दीप सी मैं!  उड़ रहा...

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