कविताएँ

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खेलूँगी कभी न होली

खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं हमजोली । यह आँख नहीं कुछ बोली, यह हुई श्याम की तोली, ऐसी भी रही ठठोली, गाढ़े रेशम की चोली- अपने से अपनी धो लो, अपना घूँघट तुम खोलो, अपनी ही बातें बोलो, मैं बसी पराई टोली । जिनसे होगा कुछ नाता, उनसे रह लेगा माथा, उनसे हैं जोडूँ-जाता, मैं मोल दूसरे मोली

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सब बुझे दीपक जला लूं

सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम आज दीपक रागिनी जगा लूं  क्षितिज कारा तोडकर अब  गा उठी उन्मत आंधी,  अब घटाओं में न रुकती  लास तन्मय तडित बांधी,  धूल की इस वीणा पर मैं तार हर त्रण का मिला लूं!  भीत तारक मूंदते द्रग  भ्रान्त मारुत पथ न पाता,  छोड उल्का अंक नभ में  ध्वंस आता हरहराता उंगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूं! लय बनी मृदु वर्तिका हर स्वर बना बन लौ सजीली, फैलती आलोक सी  झंकार मेरी स्नेह गीली  इस मरण के...

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पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है

पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है, आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में, अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है दिङ् निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र-पुंज में । लीला का संवरण-समय फूलों का जैसे फलों फले या झरे अफल, पातों के ऊपर, सिद्ध योगियों जैसे या साधारण मानव, ताक रहा है भीष्म शरों की कठिन सेज पर । स्निग्ध हो चुका है निदाघ, वर्षा भी कर्षित कल शारद कल्य की, हेम लोमों आच्छादित, शिशिर-भिद्य, बौरा बसंत आमों आमोदित, बीत चुका है दिक्चुम्बित...

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हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण खोलो¸ रूक सुनो¸ विकल यह नाद कहां से आता है। है आग लगी या कहीं लुटेरे लूट रहे? वह कौन दूर पर गांवों में चिल्लाता है? जनता की छाती भिदें और तुम नींद करो¸ अपने भर तो यह जुल्म नहीं होने दूँगा। तुम बुरा कहो या भला¸ मुझे परवाह नहीं¸ पर दोपहरी में तुम्हें नहीं सोने दूँगा।। हो कहां अग्निधर्मा नवीन ऋषियो? जागो¸ कुछ नयी आग¸ नूतन ज्वाला की सृष्टि करो। शीतल प्रमाद से ऊंघ रहे हैं जो¸ उनकी मखमली सेज पर चिनगारी की वृष्टि करो। गीतों...

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धूप सा तन दीप सी मैं

धूप सा तन दीप सी मैं!  उड़ रहा नित एक सौरभ-धूम-लेखा में बिखर तन, खो रहा निज को अथक आलोक-सांसों में पिघल मन अश्रु से गीला सृजन-पल, औ' विसर्जन पुलक-उज्ज्वल, आ रही अविराम मिट मिट स्वजन ओर समीप सी मैं! सघन घन का चल तुरंगम चक्र झंझा के बनाये, रश्मि विद्युत ले प्रलय-रथ पर भले तुम श्रान्त आये, पंथ में मृदु स्वेद-कण चुन, छांह से भर प्राण उन्मन, तम-जलधि में नेह का मोती रचूंगी सीप सी मैं! धूप-सा तन दीप सी मैं!

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केशर की, कलि की पिचकारी

केशर की, कलि की पिचकारीः पात-पात की गात सँवारी । राग-पराग-कपोल किए हैं, लाल-गुलाल अमोल लिए हैं तरू-तरू के तन खोल दिए हैं, आरती जोत-उदोत उतारी- गन्ध-पवन की धूप धवारी । गाए खग-कुल-कण्ठ गीत शत, संग मृदंग तरंग-तीर-हत भजन-मनोरंजन-रत अविरत, राग-राग को फलित किया री- विकल-अंग कल गगन विहारी ।

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रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप से तुम तुम से तू होने लगी चाहिए पैग़ामबर दोने तरफ़ लुत्फ़ क्या जब दू-ब-दू होने लगी मेरी रुस्वाई की नौबत आ गई उनकी शोहरत की क़ू-ब-कू़ होने लगी नाजि़र बढ़ गई है इस क़दर आरजू की आरजू होने लगी अब तो मिल कर देखिए क्या रंग हो फिर हमारी जुस्तजू होने लगी 'दाग़' इतराए हुए फिरते हैं आप शायद उनकी आबरू होने लगी.

अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी

हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं बेचारी को। पर वो चीं-चीं करती है घर में तो वो नहीं रहेगी!

भारत महिमा

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव   वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव 

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लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो

लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा। उन्ही बीजों को नये पर लगे, उन्ही पौधों से नया रस झिरा। उन्ही खेतों पर गये हल चले, उन्ही माथों पर गये बल पड़े, उन्ही पेड़ों पर नये फल फले, जवानी फिरी जो पानी फिरा। पुरवा हवा की नमी बढ़ी, जूही के जहाँ की लड़ी कढ़ी, सविता ने क्या कविता पढ़ी, बदला है बादलों से सिरा। जग के अपावन धुल गये, ढेले गड़ने वाले थे घुल गये, समता के दृग दोनों तुल गये, तपता गगन घन से घिरा ।

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