अरुण यह मधुमय देश हमारा। जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।। सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर। छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।। लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे। उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।। बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल। लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।। हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे। मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।।...
आ रही रवि की सवारी। नव-किरण का रथ सजा है, कलि-कुसुम से पथ सजा है, बादलों-से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी। आ रही रवि की सवारी। विहग, बंदी और चारण, गा रहे हैं कीर्ति-गायन, छोड़कर मैदान भागी, तारकों की फ़ौज सारी। आ रही रवि की सवारी। चाहता, उछलूँ विजय कह, पर ठिठकता देखकर यह- रात का राजा खड़ा है, राह में बनकर भिखारी। आ रही रवि की सवारी।
ये चाँदनी भी जिन को छूते हुए डरती है दुनिया उन्हीं फूलों को पैरों से मसलती है शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है लोबान में चिंगारी जैसे कोई रख दे यूँ याद तेरी शब भर सीने में सुलगती है आ जाता है ख़ुद खींच कर दिल सीने से पटरी पर जब रात की सरहद से इक रेल गुज़रती है आँसू कभी पलकों पर ता देर नहीं रुकते उड़ जाते हैं ये पंछी जब शाख़ लचकती है ख़ुश रंग परिंदों के लौट आने के दिन आये बिछड़े हुए मिलते...
मृषा मृत्यु का भय है जीवन की ही जय है । जीव की जड़ जमा रहा है नित नव वैभव कमा रहा है यह आत्मा अक्षय है जीवन की ही जय है। नया जन्म ही जग पाता है मरण मूढ़-सा रह जाता है एक बीज सौ उपजाता है सृष्टा बड़ा सदय है जीवन की ही जय है। जीवन पर सौ बार मरूँ मैं क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं यदि न उचित उपयोग करूँ मैं तो फिर महाप्रलय है जीवन की ही जय है।
शरद का सुंदर नीलाकाश निशा निखरी, था निर्मल हास बह रही छाया पथ में स्वच्छ सुधा सरिता लेती उच्छ्वास पुलक कर लगी देखने धरा प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद सु शीतलकारी शशि आया सुधा की मनो बड़ी सी बूँद !
वृक्ष हों भले खड़े, हों घने हों बड़े, एक पत्र छाँह भी, माँग मत, माँग मत, माँग मत, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। तू न थकेगा कभी, तू न रुकेगा कभी, तू न मुड़ेगा कभी, कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। यह महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु श्वेत रक्त से, लथपथ लथपथ लथपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
मुझे झुका दो,मुझे झुका दो अपने चरण तल में, करो मन विगलित, जीवन विसर्जित नयन जल में. अकेली हूँ मैं अहंकार के उच्च शिखर पर- माटी कर दो पथरीला आसन, तोड़ो बलपूर्वक. मुझे झुका दो,मुझे झुका दो अपने चरण तल में, किस पर अभिमान करूँ व्यर्थ जीवन में भरे घर में शून्य हूँ मैं बिन तुम्हारे. दिनभर का कर्म डूबा मेरा अतल में अहं की, सांध्य-वेला की पूजा भी हो न जाए विफल कहीं. मुझे झुका दो,मुझे झुका दो अपने चरण तल में.
नर हो, न निराश करो मन को कुछ काम करो, कुछ काम करो जग में रह कर कुछ नाम करो यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो कुछ तो उपयुक्त करो तन को नर हो, न निराश करो मन को संभलो कि सुयोग न जाय चला कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला समझो जग को न निरा सपना पथ आप प्रशस्त करो अपना अखिलेश्वर है अवलंबन को नर हो, न निराश करो मन को जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ तुम स्वत्त्व...
बीती विभावरी जाग री! अम्बर पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी! खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा किसलय का अंचल डोल रहा लो यह लतिका भी भर लाई- मधु मुकुल नवल रस गागरी अधरों में राग अमंद पिए अलकों में मलयज बंद किए तू अब तक सोई है आली आँखों में भरे विहाग री!
सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा, डूबा, संध्या आई, छाई, सौ संध्या सी वह संध्या थी, क्यों उठते-उठते सोचा था दिन में होगी कुछ बात नई लो दिन बीता, लो रात गई धीमे-धीमे तारे निकले, धीरे-धीरे नभ में फ़ैले, सौ रजनी सी वह रजनी थी, क्यों संध्या को यह सोचा था, निशि में होगी कुछ बात नई, लो दिन बीता, लो रात गई चिडियाँ चहकी, कलियाँ महकी, पूरब से फ़िर सूरज निकला, जैसे होती थी, सुबह हुई, क्यों सोते-सोते सोचा था, ...
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...