जागो फिर एक बार

जागो फिर एक बार ! समर में अमर कर प्राण ...

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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

जागो फिर एक बार !

समर में अमर कर प्राण,

गान गाये महासिन्धु-से

सिन्धु-नद-तीरवासी !

सैन्धव तुरंगों पर

चतुरंग चमू संग;

‘‘सवा-सवा लाख पर

एक को चढ़ाऊँगा,

गोविन्द सिंह निज

नाम जब कहाऊँगा।''

किसने सुनाया यह

वीर-जन-मोहन अति

दुर्जय संग्राम-राग,

फाग का खेला रण

बारहों महीनों में ?

शेरों की माँद में,

आया है आज स्यार-

जागो फिर एक बार !

 

सत् श्री अकाल,

भाल-अनल धक-धक कर जला,

भस्म हो गया था काल-

तीनों गुण-ताप त्रय,

अभय हो गये थे तुम,

मृत्युञ्जय व्योमकेश के समान,

अमृत-सन्तान ! तीव्र

भेदकर सप्तावरण-मरण-लोक,

शोकहारी ! पहुँचे थे वहाँ,

जहाँ आसन है सहस्रार-

 

सिंह की गोद से

छीनता रे शिशु कौन ?

मौन भी क्या रहती वह

रहते प्राण ? रे अजान !

एक मेषमाता ही

रहती है निर्निमेष-

दुर्बल वह-

छिनती सन्तान जब

जन्म पर अपने अभिशप्त

तप्त आँसू बहाती है;-

किन्तु क्या,

योग्य जन जीता है,

पश्चिम की उक्ति नहीं-

गीता है, गीता है-

स्मरण करो बार-बार-

जागो फिर एक बार !

 

पशु नहीं वीर तुम,

समर-शूर क्रूर नहीं,

कालचक्र में हो दबे

आज तुम राजकुँवर !-समर-सरताज !

पर, क्या है,

सब माया है-माया है,

मुक्त हो सदा ही तुम,

बाधा-विहीन बन्ध छन्द ज्यों,

डूबे आनन्द में सच्चिदानन्द-रूप।

महामन्त्र ऋषियों का

अणुओं-परमाणुओं में फूँका हुआ-

‘‘तुम हो महान्, तुम सदा हो महान्,

है नश्वर यह दीन भाव,

कायरता, कामपरता,

ब्रह्म हो तुम,

पद-रज-भर भी है नहीं,

पूरा यह विश्व-भार''-

जागो फिर एक बार !


(1921 ई.)


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