उसकी अनगिन बूँदों में स्वाति बूँद कौन?

चेतना रही है सदा अपरिचित ही बन कर। इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में जब चला गया मेहमान,गया पहचाना है ...

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गोपालदास "नीरज"

उसकी अनगिन बूँदों में स्वाति बूँद कौन?

यह बात स्वयं बादल को भी मालूम नहीं।

 

किस एक साँस से गाँठ जुड़ी है जीवन की?

   हर जीवित से ज्यादा यह प्रश्न पुराना है ।

     कौन सी जलन जलकर सूरज बन जाती है?

       बुझ कर भी दीपक ने यह भेद न जाना है।

परिचय करना तो बस मिट्टी का सुभाव है,

   चेतना रही है सदा अपरिचित ही बन कर।

     इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में

       जब चला गया मेहमान,गया पहचाना है।

खिल-खिल कर हँस-हँस कर झर-झरकर काँटों में,

   उपवन का रिण तो भर देता हर फूल मगर,

     मन की पीड़ा कैसे खुशबू बन जाती है,

       यह बात स्वयं पाटल को भी मालूम नहीं।

 

उसकी अनगिन बूँदों में स्वाति बूँद कौन?

यह बात स्वयं बादल को भी मालूम नहीं

 

किस क्षण अधरों पर कौन गीत उग आएगा

   खुद नहीं जानती गायक की स्वरवती श्वास,

     कब घट के निकट स्वयं पनघट उठ आएगा

       यह मर्म बताने में है चिर असमर्थ प्यास,

जो जाना-वह सीमा है सिर्फ़ जानने की

   सत्य तो अनजाने ही आता है जीवन में

     उस क्षण भी कोई बैठा पास दिखता है

       जब होता अपना मन भी अपने नहीं पास।

जिस ऊँगली ने उठकर अंजन यह आँजा है

   उसका तो पता बता सकते कुछ नयन,किन्तु

     किस आँसू से पुतली उजली हो जाती है 

       यह बात स्वयं काजल को भी मालूम नहीं!

 

उसकी अनगिन बूँदों में स्वाति बूँद कौन?

यह बात स्वयं बादल को भी मालूम नहीं

 

क्यों सूरज जल-जलकर दिन-भर तप करता है?

   जब पूछा संध्या से वह चाँद बुला लाई,

     क्यों उषा हंसती है निशि के लुट जाने पर 

       जब एक कली से कहा खिली वह मुस्काई।

हर एक प्रश्न का उत्तर है दूसरा प्रश्न 

   उत्तर तो सिर्फ निरुत्तर है इस जग में

     जब-जब जलती है लाश गोद में मरघट की

       तब-तब है बजी कहीं पर कोई शहनाई,

हर एक रुदन के साथ जुड़ा है एक गान

   यह सत्य जानता है हर एक सितार मगर

     किस घुंघरू से कितना संगीत छलकता है

       यह बात स्वयं पायल को भी मालूम नहीं!

 

उसकी अनगिन बूँदों में स्वाति बूँद कौन?

यह बात स्वयं बादल को भी मालूम नहीं।

 

उस ऱोज रह पर मिला एक टूटा दर्पण

   जिसमे मुख देखा था हर चाँद-सितारे ने,

     काजल-कंघी, सेंदुर-बिंदी ने बार-बार

       सिंगार किया था हँस-हँस साँझ-सकारे ने,

लेकिन टुकड़े-टुकड़े होकर भी वह मैंने 

   देखा सूरज से अपनी नज़र मिलाए था,

     जैसे सागर पर हाथ बढ़ाया था मानो

       बुझते-बुझते भी किसी एक अंगारे ने

मैंने पूछा इतना जर्जर जीवन लेकर 

   कैसे कंकर-पत्थर की चोटें सहता तू?

     वह बोला, "किस चोट से चोट मिट जाती है?

       यह बात स्वयं घायल को भी मालूम नहीं!"

 

उसकी अनगिन बूँदों में स्वाति बूँद कौन?

यह बात स्वयं बादल को भी मालूम नहीं।

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