मैंने जो गीत तेरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे

देख इस अर्सागह-ए-मेहनत-ओ-सर्माया में मेरे नग़्में भी मेरे पास नहीं रह सकते ...

Saahir ludhianavi 600x350.jpg

मैंने जो गीत तेरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे 

आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ 

आज दुकान पे नीलाम उठेगा उन का 

तूने जिन गीतों पे रक्खी थी मुहब्बत की असास 

आज चाँदी की तराज़ू में तुलेगी हर चीज़ 

मेरे अफ़कार मेरी शायरी मेरा एहसास 

 

जो तेरी ज़ात से मनसूब थे उन गीतों को 

मुफ़्लिसी जिन्स बनाने पे उतर आई है 

भूक तेरे रुख़-ए-रन्गीं के फ़सानों के इवज़ 

चंद आशिया-ए-ज़रूरत की तमन्नाई है 

 

देख इस अर्सागह-ए-मेहनत-ओ-सर्माया में 

मेरे नग़्में भी मेरे पास नहीं रह सकते 

तेरे ज़लवे किसी ज़रदार की मीरास सही 

तेरे ख़ाके भी मेरे पास नहीं रह सकते 

 

आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ 

मैंने जो गीत तेरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे 



शब्दार्थ:
[असास=नींव; अफ़कार=लेख] 
[मनसूब= जुडे हुए; मुफ़्लिसी= गरीबी] 
[जिन्स= वस्तु; इवज़= बदले में]
[अर्सागह-ए-मेहनत-ओ-सर्माया= पैसे और मजदूरी की लडाई में]
[ज़रदार=अमीर; मीरास=जायदाद; ख़ाके= रूप] 




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