काहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे काहे को ब्याहे बिदेस ...
वेद-शास्त्र थे लिखे पुरुष के , मुश्किल था बचकर जाना हारा दांव बचा लेने को , पति को परमेश्वर जाना दुल्हन बनकर दिया जलाया दासी बन घर बार चलाया माँ बनकर ममता बांटी तो , महल बनी झोंपड़िया रे उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे ...
तुम तुंग - हिमालय - श्रृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता ...
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हुए दिन बीते। उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते ...
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा ...
स्नेह-निर्झर बह गया है ! रेत ज्यों तन रह गया है ...
गहन है यह अंधकारा; स्वार्थ के अवगुंठनों से हुआ है लुंठन हमारा ...