आशावाद

Kedarnath mishr prabhat 275x153.jpg

मेरे मन! तू दीपक-सा जल

जल-जल कर उज्ज्वल कर प्रतिपल प्रिय का उत्सव-गेह जीवन तेरे लिये खड़ा है लेकर नीरव स्नेह प्रथम-किरण तू ही अनंत की तू ही अंतिम रश्मि सुकोमल मेरे मन! तू दीपक-सा जल ‘लौ' के कंपन से बनता क्षण में पृथ्वी-आकाश काल-चिता पर खिल उठता जब तेरा ऊर्म्मिल हास सृजन-पुलक की मधुर रागिणी तू ही गीत, तान, लय अविकल मेरे मन! तू दीपक-सा जल

अब निशा देती निमंत्रण

अब निशा देती निमंत्रण! महल इसका तम-विनिर्मित, ज्वलित इसमें दीप अगणित! द्वार निद्रा के सजे हैं स्वप्न से शोभन-अशोभन! अब निशा देती निमंत्रण! भूत-भावी इस जगह पर वर्तमान समाज होकर सामने है देश-काल-समाज के तज सब नियंत्रण! अब निशा देती निमंत्रण! सत्य कर सपने असंभव!-- पर, ठहर, नादान मानव!-- हो रहा है साथ में तेरे बड़ा भारी प्रवंचन! अब निशा देती निमंत्रण!

Aarsi prasad singh 275x153.jpg

निर्वचन

चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।  अब न झंझावात है वह अब न वह विद्रोह मेरा।  भूल जाने दो उन्हें, जो भूल जाते हैं किसी को।  भूलने वाले भला कब याद आते हैं किसी को?  टूटते हैं स्वप्न सारे, जा रहा व्यामोह मेरा।  चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।  ग्रीष्म के संताप में जो प्राण झुलसे लू-लपट से,  बाण जो चुभते हृदय में थे किसी के छल-कपट से!  अब उन्हीं चिनगारियों पर बादलों ने राग छेड़ा।  चेतना के हर शिखर पर हो रहा आरोह मेरा।  जो धधकती...

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जीवन का झरना

यह जीवन क्या है? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है। सुख-दुख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है।    कब फूटा गिरि के अंतर से? किस अंचल से उतरा नीचे?  किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे?    निर्झर में गति है, जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है!  धुन एक सिर्फ़ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है।    बाधा के रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता,  बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता।    लहरें उठती हैं,...

Suryakant tripathi nirala 275x153.jpg

जागो फिर एक बार

जागो फिर एक बार! प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें अरुण-पंख तरुण-किरण खड़ी खोलती है द्वार- जागो फिर एक बार!   आँखे अलियों-सी किस मधु की गलियों में फँसी, बन्द कर पाँखें पी रही हैं मधु मौन अथवा सोयी कमल-कोरकों में?- बन्द हो रहा गुंजार- जागो फिर एक बार!   अस्ताचल चले रवि, शशि-छवि विभावरी में चित्रित हुई है देख यामिनीगन्धा जगी, एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय, आशाओं भरी मौन भाषा बहु भावमयी घेर रहा...

Sohanlaldwivedi 275x153.jpg

हिमालय

युग युग से है अपने पथ पर  देखो कैसा खड़ा हिमालय!  डिगता कभी न अपने प्रण से  रहता प्रण पर अड़ा हिमालय!   जो जो भी बाधायें आईं  उन सब से ही लड़ा हिमालय,  इसीलिए तो दुनिया भर में  हुआ सभी से बड़ा हिमालय!   अगर न करता काम कभी कुछ  रहता हरदम पड़ा हिमालय  तो भारत के शीश चमकता  नहीं मुकुट-सा जड़ा हिमालय!   खड़ा हिमालय बता रहा है  डरो न आँधी पानी में,  खड़े रहो अपने पथ पर  सब कठिनाई तूफानी में!   डिगो न अपने प्रण से तो --  सब कुछ...

Gopaldasneeraj 275x153.jpg

रोने वाला ही गाता है

रोने वाला ही गाता है!   मधु-विष हैं दोनों जीवन में दोनों मिलते जीवन-क्रम में पर विष पाने पर पहले मधु-मूल्य अरे, कुछ बढ़ जाता है। रोने वाला ही गाता है!   प्राणों की वर्त्तिका बनाकर ओढ़ तिमिर की काली चादर जलने वाला दीपक ही तो जग का तिमिर मिटा पाता है। रोने वाला ही गाता है!   अरे! प्रकृति का यही नियम है रोदन के पीछे गायन है पहले रोया करता है नभ, पीछे इन्द्रधनुष छाता है। रोने वाला ही गाता है!

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नवीन कल्पना करो

निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो, तुम कल्पना करो।   अब देश है स्वतंत्र, मेदिनी स्वतंत्र है  मधुमास है स्वतंत्र, चाँदनी स्वतंत्र है  हर दीप है स्वतंत्र, रोशनी स्वतंत्र है  अब शक्ति की ज्वलंत दामिनी स्वतंत्र है  लेकर अनंत शक्तियाँ सद्य समृद्धि की- तुम कामना करो, किशोर कामना करो, तुम कल्पना करो। तन की स्वतंत्रता चरित्र का निखार है  मन की स्वतंत्रता विचार की बहार है  घर की स्वतंत्रता समाज का सिंगार...

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ध्वनि

अभी न होगा मेरा अन्त    अभी-अभी ही तो आया है  मेरे वन में मृदुल वसन्त-  अभी न होगा मेरा अन्त    हरे-हरे ये पात,  डालियाँ, कलियाँ कोमल गात!    मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर  फेरूँगा निद्रित कलियों पर  जगा एक प्रत्यूष मनोहर    पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं,  अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं,    द्वार दिखा दूँगा फिर उनको  है मेरे वे जहाँ अनन्त-  अभी न होगा मेरा अन्त।    ...

कौन जाने?

झुक रही है भूमि बाईं ओर, फ़िर भी कौन जाने? नियति की आँखें बचाकर, आज धारा दाहिने बह जाए।   जाने  किस किरण-शर के वरद आघात से निर्वर्ण रेखा-चित्र, बीती रात का, कब रँग उठे।  सहसा मुखर हो मूक क्या कह जाए?   'सम्भव क्या नहीं है आज- लोहित लेखनी प्राची क्षितिज की, कर रही है प्रेरणा,  यह प्रश्न अंकित?    कौन जाने आज ही नि:शेष हों सारे  सँजोये स्वप्न, दिन की सिध्दियों में कौन जाने शेष फिर भी,...

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