इक़बाल बानो

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न रवा कहिये न सज़ा कहिये

न रवा कहिये न सज़ा कहिये कहिये कहिये मुझे बुरा कहिये दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़ इस को हर्गिज़ न बर्मला कहिये वो मुझे क़त्ल कर के कहते हैं मानता ही न था ये क्या कहिये आ गई आप को मसिहाई मरने वालो को मर्हबा कहिये होश उड़ने लगे रक़ीबों के "दाग" को और बेवफ़ा कहिये

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ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-ज़फ़ा क्यूँ नहीं देते

  ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-ज़फ़ा[1] क्यूँ नहीं देते  बिस्मिल[2] हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते    वहशत[3] का सबब रोज़न-ए-ज़िन्दाँ[4] तो नहीं है  मेहर-ओ-महो-ओ-अंजुम[5] को बुझा क्यूँ नहीं देते    इक ये भी तो अन्दाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ[6] है  ऐ चारागरो![7] दर्द बढ़ा क्यूँ नहीं देते    मुंसिफ़[8] हो अगर तुम तो कब इन्साफ़ करोगे  मुजरिम[9] हैं अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते    रहज़न[10] हो तो हाज़िर है मता-ए-दिल-ओ-जाँ[11]...

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