सौन्दर्य

Suryakant tripathi nirala 275x153.jpg

रेखा

यौवन के तीर पर प्रथम था आया जब श्रोत सौन्दर्य का, वीचियों में कलरव सुख चुम्बित प्रणय का था मधुर आकर्षणमय, मज्जनावेदन मृदु फूटता सागर में। वाहिनी संसृति की आती अज्ञात दूर चरण-चिन्ह-रहित स्मृति-रेखाएँ पारकर, प्रीति की प्लावन-पटु, क्षण में बहा लिया— साथी मैं हो गया अकूल का, भूल गया निज सीमा, क्षण में अज्ञानता को सौंप दिये मैंने प्राण बिना अर्थ,--प्रार्थना के। तापहर हृदय वेग लग्न एक ही स्मृति में; कितना अपनाव?— प्रेमभाव बिना भाषा का,...

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तुम मृगनयनी

तुम मृगनयनी, तुम पिकबयनी तुम छवि की परिणीता-सी, अपनी बेसुध मादकता में भूली-सी, भयभीता सी ।   तुम उल्लास भरी आई हो तुम आईं उच्छ्‌वास भरी, तुम क्या जानो मेरे उर में कितने युग की प्यास भरी ।   शत-शत मधु के शत-शत सपनों की पुलकित परछाईं-सी, मलय-विचुम्बित तुम ऊषा की अनुरंजित अरुणाई-सी ;   तुम अभिमान-भरी आई हो अपना नव-अनुराग लिए, तुम क्या जानो कि मैं तप रहा किस आशा की आग लिए ।   भरे हुए सूनेपन के...

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तुम कनक किरन

तुम कनक किरन के अंतराल में लुक छिप कर चलते हो क्यों ?   नत मस्तक गवर् वहन करते यौवन के घन रस कन झरते हे लाज भरे सौंदर्य बता दो मौन बने रहते हो क्यों?   अधरों के मधुर कगारों में कल कल ध्वनि की गुंजारों में मधु सरिता सी यह हंसी तरल अपनी पीते रहते हो क्यों?   बेला विभ्रम की बीत चली रजनीगंधा की कली खिली अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल कलित हो यों छिपते हो क्यों?

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रुपसि तेरा घन-केश पाश!

रुपसि तेरा घन-केश पाश! श्यामल श्यामल कोमल कोमल, लहराता सुरभित केश-पाश!   नभगंगा की रजत धार में, धो आई क्या इन्हें रात? कम्पित हैं तेरे सजल अंग, सिहरा सा तन हे सद्यस्नात! भीगी अलकों के छोरों से चूती बूँदे कर विविध लास! रुपसि तेरा घन-केश पाश!   सौरभ भीना झीना गीला लिपटा मृदु अंजन सा दुकूल; चल अञ्चल से झर झर झरते पथ में जुगनू के स्वर्ण-फूल; दीपक से देता बार बार तेरा उज्जवल चितवन-विलास! रुपसि तेरा...

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वे किसान की नयी बहू की आँखें

नहीं जानती जो अपने को खिली हुई-- विश्व-विभव से मिली हुई,-- नहीं जानती सम्राज्ञी अपने को,-- नहीं कर सकीं सत्य कभी सपने को, वे किसान की नयी बहू की आँखें ज्यों हरीतिमा में बैठे दो विहग बन्द कर पाँखें; वे केवल निर्जन के दिशाकाश की, प्रियतम के प्राणों के पास-हास की, भीरु पकड़ जाने को हैं दुनियाँ के कर से-- बढ़े क्यों न वह पुलकित हो कैसे भी वर से।

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हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियो। श्रवण...

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अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी

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भारत महिमा

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लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो

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