जैसे हम हैं वैसे ही रहें, लिये हाथ एक दूसरे का अतिशय सुख के सागर में बहें। मुदें पलक, केवल देखें उर में,- सुनें सब कथा परिमल-सुर में, जो चाहें, कहें वे, कहें। वहाँ एक दृष्टि से अशेष प्रणय देख रहा है जग को निर्भय, दोनों उसकी दृढ़ लहरें सहें।
दीप मेरे जल अकम्पित, घुल अचंचल! सिन्धु का उच्छवास घन है, तड़ित, तम का विकल मन है, भीति क्या नभ है व्यथा का आँसुओं से सिक्त अंचल! स्वर-प्रकम्पित कर दिशायें, मीड़, सब भू की शिरायें, गा रहे आंधी-प्रलय तेरे लिये ही आज मंगल मोह क्या निशि के वरों का, शलभ के झुलसे परों का साथ अक्षय ज्वाल का तू ले चला अनमोल सम्बल! पथ न भूले, एक पग भी, घर न खोये, लघु विहग भी, स्निग्ध लौ की तूलिका से आँक सबकी छाँह...
जो तुम आ जाते एक बार कितनी करूणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणों का तार तार अनुराग भरा उन्माद राग आँसू लेते वे पथ पखार जो तुम आ जाते एक बार हँस उठते पल में आर्द्र नयन धुल जाता होठों से विषाद छा जाता जीवन में बसंत लुट जाता चिर संचित विराग आँखें देतीं सर्वस्व वार जो तुम आ जाते एक बार
तुम अपनी हो, जग अपना है किसका किस पर अधिकार प्रिये फिर दुविधा का क्या काम यहाँ इस पार या कि उस पार प्रिये। देखो वियोग की शिशिर रात आँसू का हिमजल छोड़ चली ज्योत्स्ना की वह ठण्डी उसाँस दिन का रक्तांचल छोड़ चली। चलना है सबको छोड़ यहाँ अपने सुख-दुख का भार प्रिये, करना है कर लो आज उसे कल पर किसका अधिकार प्रिये। है आज शीत से झुलस रहे ये कोमल अरुण कपोल प्रिये अभिलाषा की मादकता से कर लो निज छवि का...
आज जाने की ज़िद न करो यूँ ही पहलू में बैठे रहो हाय मर जायेंगे हम तो लुट जायेंगे ऐसी बातें किया न करो तुम्ही सोचो ज़रा, क्यूँ न रोकें तुम्हें जान जाती है जब, उठ के जाते हो तुम तुमको अपनी क़सम जान-ए-जाँ बात इतनी मेरी मान लो आज जाने की... वक़्त की क़ैद में ज़िंदगी है मगर चंद घड़ियाँ यही है जो आज़ाद हैं इनको खोकर मेरी जान-ए-जाँ उम्र भर ना तरसते रहो आज जाने की... कितना मासूम रंगीन है ये समां हुस्न और इश्क़ की आज मेराज है कल...
प्रिय मेरे गीले नयन बनेंगे आरती! श्वासों में सपने कर गुम्फित, बन्दनवार वेदना- चर्चित, भर दुख से जीवन का घट नित, मूक क्षणों में मधुर भरुंगी भारती! दृग मेरे यह दीपक झिलमिल, भर आँसू का स्नेह रहा ढुल, सुधि तेरी अविराम रही जल, पद-ध्वनि पर आलोक रहूँगी वारती! यह लो प्रिय ! निधियोंमय जीवन, जग की अक्षय स्मृतियों का धन, सुख-सोना करुणा-हीरक-कण, तुमसे जीता, आज तुम्हीं को हारती!
टकरा ही गई मेरी नज़र उनकी नज़र से धोना ही पङा हाथ मुझे, कल्ब-ओ-जिगर[1] से इज़हार-ए-मोहब्बत न किया बस इसी डर से ऐसा न हो गिर जाऊँ कहीं उनकी नज़र से ऐ ज़ौक़-ए-तलब[2], जोश-ए-जुनूँ ये तो बता दे जाना है कहाँ और हम आए हैं किधर से ऐ अहल-ए-चमन[3], सहन-ए-चमन[4] से कफ़स[5] अच्छा महफूज़ तो हो जाएँगे हम बर्क-ए-शरर[6] से 'फ़य्याज़' अब आया है जुनूँ जोश पे अपना हँसता है ज़माना, मैं गुज़रता हूँ जिधर से शब्दार्थ: 1. कल्ब-ओ-जिगर = दिल और कलेजा ...
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती ये ख़ज़ाने तुझे मुम्किन[1] है ख़राबों[2] में मिलें तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों[3] में मिलें ग़म-ए-दुनिया[4] भी ग़म-ए-यार[5] में शामिल कर लो नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें आज हम दार[6] पे खेंचे गये जिन बातों पर क्या...
ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-ज़फ़ा[1] क्यूँ नहीं देते बिस्मिल[2] हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते वहशत[3] का सबब रोज़न-ए-ज़िन्दाँ[4] तो नहीं है मेहर-ओ-महो-ओ-अंजुम[5] को बुझा क्यूँ नहीं देते इक ये भी तो अन्दाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ[6] है ऐ चारागरो![7] दर्द बढ़ा क्यूँ नहीं देते मुंसिफ़[8] हो अगर तुम तो कब इन्साफ़ करोगे मुजरिम[9] हैं अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते रहज़न[10] हो तो हाज़िर है मता-ए-दिल-ओ-जाँ[11]...
आ रही हिमालय से पुकार है उदधि गरजता बार बार प्राची पश्चिम भू नभ अपार; सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त वीरों का हो कैसा वसन्त फूली सरसों ने दिया रंग मधु लेकर आ पहुंचा अनंग वधु वसुधा पुलकित अंग अंग; है वीर देश में किन्तु कंत वीरों का हो कैसा वसन्त भर रही कोकिला इधर तान मारू बाजे पर उधर गान है रंग और रण का विधान; मिलने को आए आदि अंत वीरों का हो कैसा वसन्त गलबाहें हों या कृपाण चलचितवन हो या धनुषबाण...
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...