कविताएँ

Makhanlal chaturvedi 275x153.jpg

घर मेरा है?

क्या कहा कि यह घर मेरा है? जिसके रवि उगें जेलों में, संध्या होवे वीरानों मे, उसके कानों में क्यों कहने आते हो? यह घर मेरा है?   है नील चंदोवा तना कि झूमर झालर उसमें चमक रहे, क्यों घर की याद दिलाते हो, तब सारा रैन-बसेरा है? जब चाँद मुझे नहलाता है, सूरज रोशनी पिन्हाता है, क्यों दीपक लेकर कहते हो, यह तेरा दीपक लेकर कहते हो, यह तेरा है, यह मेरा है?   ये आए बादल घूम उठे, ये हवा के झोंके झूम उठे, बिजली...

Dharmavir bharti 275x153.jpg

थके हुए कलाकार से

सृजन की थकन भूल जा देवता! अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,   अभी तो पलक में नहीं खिल सकी  नवल कल्पना की मधुर चाँदनी  अभी अधखिली ज्योत्सना की कली  नहीं ज़िन्दगी की सुरभि में सनी    अभी तो पड़ी है धरा अधबनी, अधूरी धरा पर नहीं है कहीं    अभी स्वर्ग की नींव का भी पता! सृजन की थकन भूल जा देवता! रुका तू गया रुक जगत का सृजन  तिमिरमय नयन में डगर भूल कर    कहीं खो गई रोशनी की किरन  घने बादलों में कहीं सो गया  ...

Subhadra kumari chauhan 275x153.jpg

साध

मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन।  भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।।    वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर।  बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम दोनों की पर्ण-कुटीर।।    कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता का जल।  पर न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल।।    सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों।  तरु-दल की शीतल छाया में चल समीर-सा गाते हों।।    सरिता के नीरव प्रवाह-सा...

Ramanath awasthi 275x153.jpg

वे दिन

याद आते हैं फिर बहुत वे दिन               जो बड़ी मुश्किलों से बीते थे !   शाम अक्सर ही ठहर जाती थी देर तक साथ गुनगुनाती थी ! हम बहुत ख़ुश थे, ख़ुशी के बिन भी चाँदनी रात भर जगाती थी !               हमको मालूम है कि हम कैसे               आग को ओस जैसे पीते थे ! घर के होते हुए भी बेघर थे रात हो, दिन हो, बस, हमीं भर थे ! डूब जाते थे मेघ भी जिसमें हम उसी प्यास के समन्दर थे !               उन दिनों मरने की न थी फ़ुरसत,...

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साँझ के बादल

ये अनजान नदी की नावें  जादू के-से पाल  उड़ाती  आती  मंथर चाल।   नीलम पर किरनों  की साँझी  एक न डोरी  एक न माँझी , फिर भी लाद निरंतर लाती  सेंदुर और प्रवाल!   कुछ समीप की  कुछ सुदूर की, कुछ चन्दन की  कुछ कपूर की, कुछ में गेरू, कुछ में रेशम  कुछ में केवल जाल।   ये अनजान नदी की नावें  जादू के-से पाल  उड़ाती  आती  मंथर चाल।

Dushyant kumar 275x153.jpg

एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा

एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा मौसम एक गुलेल लिये था पट—से नीचे आन गिरा   बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे तेज़ हवा हमने घर बैठे—बैठे ही सारा मंज़र देख किया   चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गई पाँवों की सोचो कितना बोझ उठा कर मैं इन राहों से गुज़रा   सहने को हो गया इकठ्ठा इतना सारा दुख मन में कहने को हो गया कि देखो अब मैं तुझ को भूल गया   धीरे— धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में इनको क्या मालूम कि...

Subhadra kumari chauhan 275x153.jpg

यह कदंब का पेड़

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।  मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।    ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।  किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।    तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।  उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।    वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।  अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।    बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।  माँ, तब...

Ramanath awasthi 275x153.jpg

सो न सका

सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात   मेरे बहुत चाहने पर भी नींद न मुझ तक आई ज़हर भरी जादूगरनी-सी मुझको लगी जुन्हाई मेरा मस्तक सहला कर बोली मुझसे पुरवाई दूर कहीं दो आँखें भर-भर आई सारी रात और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात   गगन बीच रुक तनिक चन्द्रमा लगा मुझे समझाने मनचाहा मन पा लेना है खेल नहीं दीवाने और उसी क्षण टूटा नभ से एक नखत अनजाने देख जिसे तबियत मेरी घबराई सारी रात और...

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ये प्रकाश ने फैलाये हैं

ये प्रकाश ने फैलाये हैं पैर, देख कर ख़ाली में अन्धकार का अमित कोष भर आया फैली व्याली में   ख़ाली में उनका निवास है, हँसते हैं, मुसकाता हूँ मैं ख़ाली में कितने खुलते हो, आँखें भर-भर लाता हूँ मैं इतने निकट दीख पड़ते हो वन्दन के, बह जाता हूँ मैं संध्या को समझाता हूँ मैं, ऊषा में अकुलाता हूँ मैं चमकीले अंगूर भर दिये दूर गगन की थाली में ये प्रकाश ने फैलाये हैं पैर, देख कर ख़ाली में।।   पत्र-पत्र पर, पुष्प-पुष्प पर कैसे राज...

Dharmavir bharti 275x153.jpg

फागुन की शाम

घाट के रस्ते उस बँसवट से इक पीली-सी चिड़िया उसका कुछ अच्छा-सा नाम है!   मुझे पुकारे! ताना मारे, भर आएँ, आँखड़ियाँ! उन्मन,  ये फागुन की शाम है!   घाट की सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी   आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी! अच्छा अब जाने दो मुझको घर में कितना काम है!   इस...

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खेलूँगी कभी न होली

खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...

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सब बुझे दीपक जला लूं

सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...

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पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है

पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...

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हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

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धूप सा तन दीप सी मैं

धूप सा तन दीप सी मैं!  उड़ रहा...

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