कविताएँ

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वनबेला

वर्ष का प्रथम पृथ्वी के उठे उरोज मंजु पर्वत निरुपम किसलयों बँधे, पिक-भ्रमर-गुंज भर मुखर प्राण रच रहे सधे प्रणय के गान, सुनकर सहसा, प्रखर से प्रखर तर हुआ तपन-यौवन सहसा; ऊर्जित, भास्वर पुलकित शत शत व्याकुल कर भर चूमता रसा को बार बार चुम्बित दिनकर क्षोभ से, लोभ से, ममता से, उत्कण्ठा से, प्रणय के नयन की समता से, सर्वस्व दान देकर, लेकर सर्वस्व प्रिया का सुकृत मान। दाब में ग्रीष्म, भीष्म से भीष्म बढ़ रहा ताप, प्रस्वेद, कम्प,  ज्यों ज्यों...

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आज बिरज में होरी रे रसिया

आज बिरज में होरी रे रसिया॥  होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसिया॥ आज. कौन के हाथ कनक पिचकारी, कौन के हाथ कमोरी रे रसिया॥ आज. कृष्ण के हाथ कनक पिचकारी, राधा के हाथ कमोरी रे रसिया॥ आज. अपने-अपने घर से निकसीं, कोई श्यामल, कोई गोरी रे रसिया॥ आज. उड़त गुलाल लाल भये बादर, केशर रंग में घोरी रे रसिया॥ आज. बाजत ताल मृदंग झांझ ढप, और नगारे की जोड़ी रे रसिया॥ आज. कै मन लाल गुलाल मँगाई, कै मन केशर घोरी रे रसिया॥ आज. सौ मन लाल गुलाल मगाई,...

Amir khusro 275x153.jpg

जो मैं जानती बिसरत हैं सैय्या

Jo main janti bisat hain saiyan                     जो मैं जानती बिसरत हैं सैय्या जो मैं जानती बिसरत हैं सैय्या, घुँघटा में आग लगा देती, मैं लाज के बंधन तोड़ सखी पिया प्यार को अपने मान लेती। इन चूरियों की लाज पिया रखाना, ये तो पहन लई अब उतरत न। मोरा भाग सुहाग तुमई से है मैं तो तुम ही पर जुबना लुटा बैठी। मोरे हार सिंगार की रात गई, पियू संग उमंग की बात गई पियू संत उमंग मेरी आस नई। अब आए न मोरे साँवरिया, मैं तो...

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खेलूँगी कभी न होली

खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं हमजोली । यह आँख नहीं कुछ बोली, यह हुई श्याम की तोली, ऐसी भी रही ठठोली, गाढ़े रेशम की चोली- अपने से अपनी धो लो, अपना घूँघट तुम खोलो, अपनी ही बातें बोलो, मैं बसी पराई टोली । जिनसे होगा कुछ नाता, उनसे रह लेगा माथा, उनसे हैं जोडूँ-जाता, मैं मोल दूसरे मोली

Makhanlal chaturvedi 275x153.jpg

तुम्हारा चित्र

मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया कुछ नीले कुछ श्वेत गगन पर  हरे-हरे घन श्यामल वन पर द्रुत असीम उद्दण्ड पवन पर  चुम्बन आज पवित्र बन गया, मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया। तुम आए, बोले, तुम खेले दिवस-रात्रि बांहों पर झेले साँसों में तूफान सकेले जो ऊगा वह मित्र बन गया, मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया। ये टिमटिम-पंथी ये तारे पहरन मोती जड़े तुम्हारे विस्तृत! तुम जीते हम हारे! चाँद साथ सौमित्र बन गया। मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।

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वह क्या लक्ष्य

वह क्या लक्ष्य  जिसे पा कर फिर प्यास रह गयी शेष बताने की, क्या पाया?   वह कैसा पथ-दर्शक जो सारा पथ देख स्वयं फिर आया और साथ में--आत्म-तोष से भरा-- मान-चित्र लाया?   और वह कैसा राही कहे कि हाँ, ठहरो, चलता हूँ इस दोपहरी में भी, पर इतना बतला दो, कितना पैंडा मार मिलेगी पहली छाया?

Aarsi prasad singh 275x153.jpg

चाँद को देखो

चाँद को देखो चकोरी के नयन से माप चाहे जो धरा की हो गगन से।   मेघ के हर ताल पर   नव नृत्य करता   राग जो मल्हार   अम्बर में उमड़ता आ रहा इंगित मयूरी के चरण से चाँद को देखो चकोरी के नयन से।   दाह कितनी   दीप के वरदान में है   आह कितनी   प्रेम के अभिमान में है पूछ लो सुकुमार शलभों की जलन से चाँद को देखो चकोरी के नयन से।   लाभ अपना   वासना पहचानती है   किन्तु मिटना   प्रीति केवल जानती है माँग ला रे अमृत जीवन का मरण से चाँद...

Makhanlal chaturvedi 275x153.jpg

बसन्त मनमाना

चादर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ। धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें, दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर- बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे। पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल। छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल किसको...

Dr ashwaghosh 275x153.jpg

समय नहीं है

नानी-नानी! कहो कहानी, समय नहीं है, बोली नानी। फिर मैंने पापा को परखा, बोले-समय नहीं है बरखा। भैया पर भी समय नहीं था, उसका मन भी और कहीं था। मम्मी जी भी लेटी-लेटी, बोलीं-समय नहीं है बेटी। मम्मी, पापा, नानी, भैया, दिन भर करते ता-ता-थैया। मेरी समझ नहीं आता है, इनका समय कहाँ जाता है!

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हिमाद्रि तुंग शृंग से

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती  स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती  'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,  प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!'    असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी  सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!  अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,  प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो!

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कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

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