जलने दो जीवन को इस पर करुणा की छाया न करो! इन असंख्य-घावों पर नाहक अमृत बरसाया न करो! फिर-फिर उस स्वप्निल-अतीत की गाथाएं गाया न करो! बार-बार वेदना-भरी स्मृतियों को उकसाया न करो! जीवन के चिर-अंधकार में दीपक तुम न जलाओ! मेरे उर के घोर प्रलय को सोने दो, न जगाओ! इच्छाओं की दग्ध-चिता पर क्यों हो जल बरसाते? सोई हुई व्यथा को छूकर क्यों हो व्यर्थ जगाते? संवेदना प्रकट करते हो चाह नहीं, रहने दो! ठुकराए को हाथ बढ़ाकर क्यों हो अब अपनाते?...
याद है वह हरित दिन बढ़ रहा था ज्योति के जब सामने मैं देखता दूर-विस्तृत धूम्र-धूसर पथ भविष्यत का विपुल आलोचनाओं से जटिल तनु-तन्तुओं सा सरल-वक्र, कठोर-कोमल हास सा, गम्य-दुर्गम मुख-बहुल नद-सा भरा। थक गई थी कल्पना जल-यान-दण्ड-स्थित खगी-सी खोजती तट-भूमि सागर-गर्भ में, फिर फिरी थककर उसी दुख-दण्ड पर। पवन-पीड़ित पत्र-सा कम्पन प्रथम वह अब न था। शान्ति थी, सब हट गये बादल विकल वे व्योम के। उस प्रणय के प्रात के है आज तक याद मुझको जो किरण ...
यह जीवन क्या है? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है। सुख-दुख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है। कब फूटा गिरि के अंतर से? किस अंचल से उतरा नीचे? किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे? निर्झर में गति है, जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है! धुन एक सिर्फ़ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है। बाधा के रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता, बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता। लहरें उठती हैं,...
अरे हिमालय! आज गरज तू बनकर विद्रोही विकराल! लाल लहू के ललित तिलक से शोभित करके अपना भाल। विश्व-विशाल-वीर दिग्विजयी! अभिमानी अखंड गिरिराज! साज, साज हां आज गरजकर क्रांति-महोत्सव के शुभ-साज शंखनाद कर, सिंह-नाद कर कर हुंकार-नाद भयमान! पड़े कब्र के भीतर मुर्दे दौड़ पड़ें सुनकर आह्वान।
आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी-- छवि-विभावरी; सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी- छबि-विभावरी; बहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरंग, तरल मुक्त नव नव छल के प्रसंग, पूरित-परिमल निर्मल सजल-अंग, शीतल-मुख मेरे तट की निस्तल निझरी-- छबि-विभावरी; निर्जन ज्योत्स्नाचुम्बित वन सघन, सहज समीरण, कली निरावरण आलिंगन दे उभार दे मन, तिरे नृत्य करती मेरी छोटी सी तरी-- छबि-विभावरी; आई है फिर मेरी 'बेला' की वह बेला 'जुही की कली' की प्रियतम से परिणय-हेला,...
रात के खेत का स्वर सितारों-जड़ा बीचियों में छलकती हुई झीलके दीप सौ-सौ लिए चल रही है हवा बांध ऊंचाइयां पंख में राजसी स्वप्न में भी समुद्यत सजग है लवा राह में क्षण सृजन का कहीं है पड़ा व्योम लगता कि लिपिबद्ध तृणभूमि है चांदनी से भरी दूब बजती जहां व्योम लगता कि हस्ताक्षरित पल्लवी पंखवाली परी ओस सजती जहां ओढ़ हलका तिमिर शैली प्रहरी खड़ा
मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया। चकाचौंध से भरी चमक का जादू तड़ित-समान दे दिया। मेरे नयन सहेंगे कैसे यह अमिताभा, ऐसी ज्वाला? मरुमाया की यह मरीचिका? तुहिनपर्व की यह वरमाला? हुई यामिनी शेष न मधु की, तूने नया विहान दे दिया। मैंने एक किरण माँगी थी, तूने तो दिनमान दे दिया। अपने मन के दर्पण में मैं किस सुन्दर का रूप निहारूँ? नव-नव गीतों की यह रचना किसके इंगित पर बलिहारूँ? मानस का मोती लेगी वह कौन अगोचर राजमराली? किस वनमाली के...
1. खिड़की खोल जगत को देखो, बाहर भीतर घनावरण है शीतल है वाताश, द्रवित है दिशा, छटा यह निरावरण है मेघ यान चल रहे झूमकर शैल-शिखर पर प्रथम चरण है! बूँद-बूँद बन छहर रहा यह जीवन का जो जन्म-मरण है! जो सागर के अतल-वितल में गर्जन-तर्जन है, हलचल है; वही ज्वार है उठा यहाँ पर शिखर-शिखर में चहल-पहल है! 2. फुहियों में पत्तियाँ नहाई आज पाँव तक भीगे तरुवर, उछल शिखर से शिखर पवन भी झूल रहा तरु की बाँहों पर; निद्रा भंग, दामिनी चौंकी, झलक...
क्या गाती हो? क्यों रह-रह जाती हो? कोकिल बोलो तो! क्या लाती हो? सन्देशा किसका है? कोकिल बोलो तो! ऊँची काली दीवारों के घेरे में, डाकू, चोरों, बटमारों के डेरे में, जीने को देते नहीं पेट भर खाना, मरने भी देते नहीं, तड़प रह जाना! जीवन पर अब दिन-रात कड़ा पहरा है, शासन है, या तम का प्रभाव गहरा है? हिमकर निराश कर चला रात भी काली, इस समय कालिमामयी जगी क्यूँ आली ? क्यों हूक पड़ी? वेदना-बोझ वाली-सी; कोकिल बोलो तो! "क्या लुटा? मृदुल वैभव...
अभी न होगा मेरा अन्त अभी-अभी ही तो आया है मेरे वन में मृदुल वसन्त- अभी न होगा मेरा अन्त हरे-हरे ये पात, डालियाँ, कलियाँ कोमल गात! मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर फेरूँगा निद्रित कलियों पर जगा एक प्रत्यूष मनोहर पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं, अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं, द्वार दिखा दूँगा फिर उनको है मेरे वे जहाँ अनन्त- अभी न होगा मेरा अन्त। मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण, इसमें कहाँ मृत्यु? है जीवन...
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...