कविताएँ

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आज प्रथम गाई पिक

आज प्रथम गाई पिक पञ्चम। गूंजा है मरु विपिन मनोरम।  मरुत-प्रवाह, कुसुम-तरु फूले, बौर-बौर पर भौरे झूले, पात-पात के प्रमुदित झूले, छाय सुरभि चतुर्दिक उत्तम। आंखों से बरसे ज्योति-कण, परसे उन्मन - उन्मन उपवन, खुला धरा का पराकृष्ट तन फूटा ज्ञान गीतमय सत्तम। प्रथम वर्ष की पांख खुली है, शाख-शाख किसलयों तुली है, एक और माधुरी चुली है, गीतम-गन्ध-रस-वर्णों अनुपम।

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तुम्हारी हंसी से धुली घाटियों में

तुम्हारी हंसी से धुली घाटियों में तिमिर के प्रलय का नया अर्थ होगा अनल-सा लहकते हुए तरु-शिखा पर किरण चल रही या चरण हैं तुम्हारे सुना है, बहुत बार अनुभव किया है सुरों में तुम्हें रात भू पर उतारे तुम्हारी हंसी से धुले हुए पर्वतों के धड़कते हृदय का नया अर्थ होगा तुम्हारा कहीं एक कण देख पाया तभी से निरंतर पयोनिधि सुलगता कहीं एक क्षण पा गया है तुम्हारा तभी से प्रभंजन अनिर्बन्ध लगता तुम्हारी हंसी से धुली क्यारियों में छलकते प्रणय का...

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एक क्षण तुम रुको

जिंदगी को लिए मैं खड़ा ओस में एक क्षण तुम रुको, रोक दो कारवां तुम समय हो, सदा भागते ही रहे आज तक रूप देखा तुम्हारा नहीं टाप पड़ती सुनाई सभी चौंकते किंतु तुमने किसी को पुकारा नहीं चाहता आज पाहुन बना दूं तुम्हें कौन जाने कि कल फिर मिलोगे कहां जिंदगी को लिए मैं जड़ा ओस में एक क्षण तुम रुको, रोक दो कारवां हो लुटेरे बड़े, स्नेह लूटा किए स्नेह में स्नेह कण-भर मिलाया नहीं आग जलती रही तुम रहे झूमते दर्द का एक आंसू बहाया नहीं आज तक जो...

Amir khusro 275x153.jpg

ऐ री सखी मोरे पिया घर आए

  ऐ री सखी मोरे पिया घर आए भाग लगे इस आँगन को बल-बल जाऊँ मैं अपने पिया के, चरन लगायो निर्धन को। मैं तो खड़ी थी आस लगाए, मेंहदी कजरा माँग सजाए। देख सूरतिया अपने पिया की, हार गई मैं तन मन को। जिसका पिया संग बीते सावन, उस दुल्हन की रैन सुहागन। जिस सावन में पिया घर नाहि, आग लगे उस सावन को। अपने पिया को मैं किस विध पाऊँ, लाज की मारी मैं तो डूबी डूबी जाऊँ तुम ही जतन करो ऐ री सखी री, मै मन भाऊँ साजन को।

Gopaldasneeraj 275x153.jpg

उसकी अनगिन बूँदों में स्वाति बूँद कौन?

उसकी अनगिन बूँदों में स्वाति बूँद कौन? यह बात स्वयं बादल को भी मालूम नहीं।   किस एक साँस से गाँठ जुड़ी है जीवन की?    हर जीवित से ज्यादा यह प्रश्न पुराना है ।      कौन सी जलन जलकर सूरज बन जाती है?        बुझ कर भी दीपक ने यह भेद न जाना है। परिचय करना तो बस मिट्टी का सुभाव है,    चेतना रही है सदा अपरिचित ही बन कर।      इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में        जब चला गया मेहमान,गया पहचाना है। खिल-खिल कर हँस-हँस कर झर-झरकर...

Kedarnath mishr prabhat 275x153.jpg

नीरव त्योहार

बजती बीन कहीं कोई जीवन जिसकी झंकार है . हँसी-रुदन में आँक रहा हूँ चित्र काल के छुप के  खेल रहा हूँ आँख मिचौनी साथ आयु के चुपके  यह पतझर,यह ग्रीष्म,मेघऋतु,यह हिम करुण शिशिर है यह त्रिकाल जो घन-सा मन-नभ में आता घिर-घिर है  आँखे दीपक,ह्रदय न जाने किसका चित्राधार है . बजती बीन कहीं कोई जीवन जिसकी झंकार है . अश्रु रश्मियों से रंग-रंगकर धरती के आमुख को  बड़े प्रेम से बाँध रहा हूँ मुस्कानों में सुख-दुःख को   गीतों में भर लेता हूँ सूनापन नील...

Daag 275x153.jpg

ये जो है हुक़्म मेरे पास न आए कोई

ये जो है हुक़्म मेरे पास न आए कोई इसलिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई ये न पूछो कि ग़मे-हिज्र में कैसी गुज़री  दिल दिखाने का हो तो दिखाए कोई हो चुका ऐश का जलसा तो मुझे ख़त पहुँचा आपकी तरह से मेहमान बुलाए कोई तर्के-बेदाद की तुम दाद न पाओ मुझसे करके एहसान ,न एहसान जताए कोई क्यों वो मय-दाख़िले-दावत ही नहीं ऐ वाइज़ मेहरबानी से बुलाकर जो पिलाए कोई सर्द -मेहरी से ज़माने के हुआ है दिल सर्द रखकर इस चीज़ को क्या आग लगाए कोई आपने दाग़ को मुँह...

Dr ashwaghosh 275x153.jpg

देखा नहीं पहाड़

अब तक हमने देखी बाढ़, लेकिन देखा नहीं पहाड़! सुना वहाँ परियाँ रहती हैं, कल-कल-कल नदियाँ बहती हैं। झरने करते हैं खिलवाड़, लेकिन देखा नहीं पहाड़! और सुना है लोग निराले, घर में नहीं लगाते ताले। हरदम रखते खुले किवाड़, लेकिन देखा नहीं पहाड़! यह भी सुना बर्फ पड़ती है, पेड़ों पर मोती जड़ती है। सब करते हैं उसको लाड़, लेकिन देखा नहीं पहाड़! जीव-जंतु हैं वहाँ अनोखे, चीते, भालू, हरियल तोते। करते रहते सिंह दहाड़, लेकिन देखा नहीं पहाड़!...

Dr ashwaghosh 275x153.jpg

बस्ता मुझसे भारी है

यह कैसी लाचारी है, बस्ता मुझसे भारी है! कंधा रोज भड़कता है, जाने क्या-क्या बकता है, लाइलाज बीमारी है, बस्ता मुझसे भारी है! जब भी मैं पढ़ने जाता, जगह-जगह ठोकर खाता, बस्ता क्या अलमारी है, बस्ता मुझसे भारी है! कान फटे सुनते सहते, मुझे देखकर सब कहते, बालक नहीं, मदारी है, बस्ता मुझसे भारी है!

Dr ashwaghosh 275x153.jpg

आज भी

वक़्त ने बदली है सिर्फ़ तन की पोशाक मन की ख़बरें तो आज भी छप रही हैं                    पुरानी मशीन पर आज भी मंदिरों में ही जा रहे हैं फूल आज भी उंगलियों को बींध रहे हैं शूल आज भी सड़कों पर जूते चटका रहा है भविष्य आज भी खिड़कियों से दूर है रोशनी आज भी पराजित है सत्य आज भी प्यासी है उत्कंठा आज भी दीवारों को दहला रही है छत आज भी सीटियाँ मार रही है हवा आज भी ज़िन्दगी पर नहीं है भरोसा।

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कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...

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