कविताएँ

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कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये   यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये   न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये   ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये   वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये   जियें तो अपने बग़ीचे में...

Dharmavir bharti 275x153.jpg

उतरी शाम

झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई खोतों पर अँधियारी छाई पश्चिम की सुनहरी धुंधराई टीलों पर, तालों पर इक्के दुक्के अपने घर जाने वालों पर धीरे-धीरे उतरी शाम !   आँचल से छू तुलसी की थाली दीदी ने घर की ढिबरी बाली जमुहाई ले लेकर उजियाली जा बैठी ताखों में धीरे-धीरे उतरी शाम !   इस अधकच्चे से घर के आंगन में जाने क्यों इतना आश्वासन पाता है यह मेरा टूटा मन लगता है इन पिछले वर्षों में सच्चे झूठे संघर्षों में ...

Sumitranandan pant 275x153.jpg

जग-जीवन में जो चिर महान

जग-जीवन में जो चिर महान, सौंदर्य-पूर्ण औ सत्य-प्राण, मैं उसका प्रेमी बनूँ, नाथ! जिसमें मानव-हित हो समान! जिससे जीवन में मिले शक्ति, छूटे भय, संशय, अंध-भक्ति; मैं वह प्रकाश बन सकूँ, नाथ! मिट जावें जिसमें अखिल व्यक्ति! दिशि-दिशि में प्रेम-प्रभा प्रसार, हर भेद-भाव का अंधकार, मैं खोल सकूँ चिर मुँदे, नाथ! मानव के उर के स्वर्ग-द्वार! पाकर, प्रभु! तुमसे अमर दान करने मानव का परित्राण, ला सकूँ विश्व में एक बार फिर...

Maithilisharan gupt 275x153.jpg

माँ कह एक कहानी

"माँ कह एक कहानी।" बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?" "कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी? माँ कह एक कहानी।"   "तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे, तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभि मनमानी।" "जहाँ सुरभि मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"   वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे, हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।" "लहराता था पानी, हाँ-हाँ...

Suryakant tripathi nirala 275x153.jpg

भिक्षुक

वह आता-- दो टूक कलेजे के करता पछताता  पथ पर आता।   पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-- दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।   साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये, बायें से वे मलते हुए पेट को चलते, और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये। भूख से सूख ओठ जब जाते दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?-- घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते। चाट...

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चुपचाप

चुप-चाप चुप-चाप झरने का स्वर             हम में भर जाए,   चुप-चाप चुप-चाप शरद की चाँदनी             झील की लहरों पे तिर आए,   चुप-चाप चुप-चाप जीवन का रहस्य, जो कहा न जाए, हमारी             ठहरी आँखों में गहराए,   चुप-चाप चुप-चाप हम पुलकित विराट् में डूबे—             पर विराट् हम में मिल जाए—   चुप-चाप चुप-चाऽऽप…

Mahadevi varma 1 275x153.jpg

मैं नीर भरी दु:ख की बदली

[विस्तृत नभ का कोई कोना,मेरा न कभी अपना होना,परिचय इतना इतिहास यही उमड़ी कल थी मिट आज चली ...]   मैं नीर भरी दु:ख की बदली!   स्पंदन में चिर निस्पंद बसा, क्रन्दन में आहत विश्व हंसा, नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झरिणी मचली!   मेरा पग-पग संगीत भरा, श्वासों में स्वप्न पराग झरा, नभ के नव रंग बुनते दुकूल, छाया में मलय बयार पली,   मैं क्षितिज भॄकुटि पर घिर धूमिल, चिंता का भार बनी अविरल, रज-कण पर जल-कण...

Harivanshrai 275x153.jpg

मौन और शब्द

एक दिन मैंने मौन में शब्द को धँसाया था और एक गहरी पीड़ा, एक गहरे आनंद में, सन्निपात-ग्रस्त सा, विवश कुछ बोला था; सुना, मेरा वह बोलना दुनियाँ में काव्य कहलाया था।   आज शब्द में मौन को धँसाता हूँ, अब न पीड़ा है न आनंद है विस्मरण के सिन्धु में डूबता सा जाता हूँ, देखूँ, तह तक पहुँचने तक, यदि पहुँचता भी हूँ,  क्या पाता हूँ।

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एक मुलाकात

मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थी सिर्फ पास बहते समुन्द्र में तूफान था……फिर समुन्द्र को खुदा जाने क्या ख्याल आया उसने तूफान की एक पोटली सी बांधी मेरे हाथों में थमाई और हंस कर कुछ दूर हो गया   हैरान थी…. पर उसका चमत्कार ले लिया पता था कि इस प्रकार की घटना कभी सदियों में होती है…..   लाखों ख्याल आये माथे में झिलमिलाये   पर खड़ी रह गयी कि उसको उठा कर अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?   मेरे शहर की हर गली संकरी...

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शक्ति और क्षमा

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल सबका लिया सहारा पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ, कब हारा?   क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुये विनत जितना ही दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही।   अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है।   क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दंतहीन विषरहित, विनीत, सरल हो।   तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिन्धु किनारे,...

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हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियो। श्रवण...

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रंज की जब गुफ्तगू होने लगी

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी आप...

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हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं...

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भारत महिमा

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे...

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लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो

लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो, ...

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