प्रेम को न दान दो, न दो दया, प्रेम तो सदैव ही समृद्ध है। प्रेम है कि ज्योति-स्नेह एक है, प्रेम है कि प्राण-देह एक है, प्रेम है कि विश्व गेह एक है, प्रेमहीन गति, प्रगति विरुद्ध है। प्रेम तो सदैव ही समृद्ध है॥ प्रेम है इसीलिए दलित दनुज, प्रेम है इसीलिए विजित दनुज, प्रेम है इसीलिए अजित मनुज, प्रेम के बिना विकास वृद्ध है। प्रेम तो सदैव ही समृद्ध है॥ नित्य व्रत करे नित्य तप करे, नित्य वेद-पाठ...
रोने वाला ही गाता है! मधु-विष हैं दोनों जीवन में दोनों मिलते जीवन-क्रम में पर विष पाने पर पहले मधु-मूल्य अरे, कुछ बढ़ जाता है। रोने वाला ही गाता है! प्राणों की वर्त्तिका बनाकर ओढ़ तिमिर की काली चादर जलने वाला दीपक ही तो जग का तिमिर मिटा पाता है। रोने वाला ही गाता है! अरे! प्रकृति का यही नियम है रोदन के पीछे गायन है पहले रोया करता है नभ, पीछे इन्द्रधनुष छाता है। रोने वाला ही गाता है!
वर्ष नव, हर्ष नव, जीवन उत्कर्ष नव। नव उमंग, नव तरंग, जीवन का नव प्रसंग। नवल चाह, नवल राह, जीवन का नव प्रवाह। गीत नवल, प्रीत नवल, जीवन की रीति नवल, जीवन की नीति नवल, जीवन की जीत नवल!
रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर, शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर, प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समूह राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध - कपि विषम हूह, विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण, लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान, राघव-लाघव - रावण - वारण - गत - युग्म - प्रहर, उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि - दल-बल - विस्तर, अनिमेष - राम-विश्वजिद्दिव्य -...
दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने क्यों है ऐसा उदास क्या जाने कह दिया मैं ने हाल-ए-दिल अपना इस को तुम जानो या ख़ुदा जाने जानते जानते ही जानेगा मुझ में क्या है वो अभी क्या जाने तुम न पाओगे सादा दिल मुझसा जो तग़ाफ़ुल को भी हया जाने
निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो, तुम कल्पना करो। अब देश है स्वतंत्र, मेदिनी स्वतंत्र है मधुमास है स्वतंत्र, चाँदनी स्वतंत्र है हर दीप है स्वतंत्र, रोशनी स्वतंत्र है अब शक्ति की ज्वलंत दामिनी स्वतंत्र है लेकर अनंत शक्तियाँ सद्य समृद्धि की- तुम कामना करो, किशोर कामना करो, तुम कल्पना करो। तन की स्वतंत्रता चरित्र का निखार है मन की स्वतंत्रता विचार की बहार है घर की स्वतंत्रता समाज का सिंगार...
न रवा कहिये न सज़ा कहिये कहिये कहिये मुझे बुरा कहिये दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़ इस को हर्गिज़ न बर्मला कहिये वो मुझे क़त्ल कर के कहते हैं मानता ही न था ये क्या कहिये आ गई आप को मसिहाई मरने वालो को मर्हबा कहिये होश उड़ने लगे रक़ीबों के "दाग" को और बेवफ़ा कहिये
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से, लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से, और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे! नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई, पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई, पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई, चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई, गीत अश्क़ बन गए, छंद हो दफ़न गए, साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये, और हम झुके-झुके, मोड़ पर रुके-रुके उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे कारवां गुज़र गया, गुबार...
कुछ न हुआ, न हो मुझे विश्व का सुख, श्री, यदि केवल पास तुम रहो! मेरे नभ के बादल यदि न कटे- चन्द्र रह गया ढका, तिमिर रात को तिरकर यदि न अटे लेश गगन-भास का, रहेंगे अधर हँसते, पथ पर, तुम हाथ यदि गहो। बहु-रस साहित्य विपुल यदि न पढ़ा-- मन्द सबों ने कहा, मेरा काव्यानुमान यदि न बढ़ा-- ज्ञान, जहाँ का रहा, रहे, समझ है मुझमें पूरी, तुम कथा यदि कहो।
उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं बाइस-ए-तर्क-ए मुलाक़ात बताते भी नहीं मुंतज़िर हैं दमे रुख़सत के ये मर जाए तो जाएँ फिर ये एहसान के हम छोड़ के जाते भी नहीं सर उठाओ तो सही, आँख मिलाओ तो सही नश्शाए मैं भी नहीं, नींद के माते भी नहीं क्या कहा फिर तो कहो; हम नहीं सुनते तेरी नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं ख़ूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं मुझसे लाग़िर तेरी आँखों में खटकते तो...
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...