अभी न होगा मेरा अन्त अभी-अभी ही तो आया है मेरे वन में मृदुल वसन्त- अभी न होगा मेरा अन्त हरे-हरे ये पात, डालियाँ, कलियाँ कोमल गात! मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर फेरूँगा निद्रित कलियों पर जगा एक प्रत्यूष मनोहर पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं, अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं, द्वार दिखा दूँगा फिर उनको है मेरे वे जहाँ अनन्त- अभी न होगा मेरा अन्त। ...
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ! बहुत बार आई-गई यह दिवाली मगर तम जहां था वहीं पर खड़ा है, बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक कफन रात का हर चमन पर पड़ा है, न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे उषा को जगाओ, निशा को सुलाओ! दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ! सृजन शान्ति के वास्ते है जरूरी कि हर द्वार पर रोशनी गीत गाये तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा, कि जब प्यार तलावार...
हर घर, हर दर, बाहर, भीतर, नीचे ऊपर, हर जगह सुघर, कैसी उजियाली है पग-पग? जगमग जगमग जगमग जगमग! छज्जों में, छत में, आले में, तुलसी के नन्हें थाले में, यह कौन रहा है दृग को ठग? जगमग जगमग जगमग जगमग! पर्वत में, नदियों, नहरों में, प्यारी प्यारी सी लहरों में, तैरते दीप कैसे भग-भग! जगमग जगमग जगमग जगमग! राजा के घर, कंगले के घर, हैं वही दीप सुंदर सुंदर! दीवाली की श्री है पग-पग, जगमग जगमग जगमग जगमग!
अंधियार ढल कर ही रहेगा आंधियां चाहें उठाओ, बिजलियां चाहें गिराओ, जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा। रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये, वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाये, वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है, जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये, उग रही लौ को न टोको, ज्योति के रथ को न रोको, यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा। जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा। दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार...
दिवसावसान का समय- मेघमय आसमान से उतर रही है वह संध्या-सुन्दरी, परी सी, धीरे, धीरे, धीरे तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास, मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर, किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास। हँसता है तो केवल तारा एक- गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से, हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक। अलसता की-सी लता, किंतु कोमलता की वह कली, सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह, छाँह सी अम्बर-पथ से चली। ...
[ प्यास ही जीवन, सकूँगी तृप्ति में मैं जी कहाँ? ...] रे पपीहे पी कहाँ? खोजता तू इस क्षितिज से उस क्षितिज तक शून्य अम्बर, लघु परों से नाप सागर; नाप पाता प्राण मेरे प्रिय समा कर भी कहाँ? हँस डुबा देगा युगों की प्यास का संसार भर तू, कण्ठगत लघु बिन्दु कर तू! प्यास ही जीवन, सकूँगी तृप्ति में मैं जी कहाँ? चपल बन बन कर मिटेगी झूम तेरी मेघवाला! मैं स्वयं जल और ज्वाला! दीप सी जलती...
तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या! तारक में छवि, प्राणों में स्मृति पलकों में नीरव पद की गति लघु उर में पुलकों की संस्कृति भर लाई हूँ तेरी चंचल और करूँ जग में संचय क्या? तेरा मुख सहास अरूणोदय परछाई रजनी विषादमय वह जागृति वह नींद स्वप्नमय, खेल-खेल, थक-थक सोने दे मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या? तेरा अधर विचुंबित प्याला तेरी ही विस्मत मिश्रित हाला तेरा ही मानस मधुशाला फिर पूछूँ क्या मेरे साकी ...
मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ अपने प्रकाश की रेखा तम के तट पर अंकित है निःसीम नियति का लेखा देने वाले को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर पल भर सुख भी देखा फिर पल भर दुख भी देखा। किस का आलोक गगन से रवि शशि उडुगन बिखराते? किस अंधकार को लेकर काले बादल घिर आते? उस चित्रकार को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर देखा है चित्रों को बन-बनकर मिट-मिट जाते। फिर उठना, फिर गिर पड़ना आशा है, वहीं निराशा...
सारे जग को पथ दिखलाने- वाला जो ध्रुव तारा है। भारत-भू ने जन्म दिया है, यह सौभाग्य हमारा है।। धूप खुली है, खुली हवा है। सौ रोगों की एक दवा है। चंदन की खुशबू से भीगा- भीगा आँचल सारा है।। जन्म-भूमि से बढ़कर सुंदर, कौन देश है इस धरती पर। इसमें जीना भी प्यारा है, इसमें मरना भी प्यारा है।। चाहे आँधी शोर मचाए, चाहे बिजली आँख दिखाए। हम न झुकेंगे, हम न रुकेंगे, यही हमारा नारा है।। पर्वत-पर्वत पाँव बढ़ाता। सागर की लहरों पर गाता। आसमान में...
[मै सुख से चंचल दुख-बोझिल क्षण-क्षण का जीवन जान चली! मिटने को कर निर्माण चली ...] अलि, मैं कण-कण को जान चली सबका क्रन्दन पहचान चली जो दृग में हीरक-जल भरते जो चितवन इन्द्रधनुष करते टूटे सपनों के मनको से जो सुखे अधरों पर झरते, जिस मुक्ताहल में मेघ भरे जो तारो के तृण में उतरे, मै नभ के रज के रस-विष के आँसू के सब रँग जान चली। जिसका मीठा-तीखा दंशन, अंगों मे भरता सुख-सिहरन, जो पग में चुभकर, कर...
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...