जब किलका को मादकता में हंस देने का वरदान मिला जब सरिता की उन बेसुध सी लहरों को कल कल गान मिला जब भूले से भरमाए से भर्मरों को रस का पान मिला तब हम मस्तों को हृदय मिला मर मिटने का अरमान मिला। पत्थर सी इन दो आंखो को जलधारा का उपहार मिला सूनी सी ठंडी सांसों को फिर उच्छवासो का भार मिला युग युग की उस तन्मयता को कल्पना मिली संचार मिला तब हम पागल से झूम उठे जब रोम रोम को प्यार मिला
हम सब सुमन एक उपवन के एक हमारी धरती सबकी जिसकी मिट्टी में जन्मे हम मिली एक ही धूप हमें है सींचे गए एक जल से हम। पले हुए हैं झूल-झूल कर पलनों में हम एक पवन के हम सब सुमन एक उपवन के।। रंग रंग के रूप हमारे अलग-अलग है क्यारी-क्यारी लेकिन हम सबसे मिलकर ही इस उपवन की शोभा सारी एक हमारा माली हम सब रहते नीचे एक गगन के हम सब सुमन एक उपवन के।। सूरज एक हमारा, जिसकी किरणें उसकी कली खिलातीं, एक हमारा...
शोला था जल-बुझा हूँ हवायें मुझे न दो मैं कब का जा चुका हूँ सदायें मुझे न दो जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया अब तुम तो ज़िन्दगी की दुआयें मुझे न दो ऐसा कहीं न हो के पलटकर न आ सकूँ हर बार दूर जा के सदायें मुझे न दो कब मुझ को ऐतेराफ़-ए-मुहब्बत न था "फ़राज़" कब मैं ने ये कहा था सज़ायें मुझे न दो
बादल आए झूम के। आसमान में घूम के। बिजली चमकी चम्म-चम। पानी बरसा झम्म-झम।। हवा चली है जोर से। नाचे जन-मन मोर-से। फिसला पाँव अरर-धम। चारों खाने चित्त हम।। मेघ गरजते घर्र-घों। मेढक गाते टर्र-टों। माँझी है उस पार रे। नाव पड़ी मँझधार रे।। शाला में अवकाश है। सुंदर सावन मास है। हाट-बाट सब बंद है। अच्छा जी आनंद है।। पंछी भीगे पंख ले। ढूँढ़ रहे हैं घोंसले। नद-नाले नाद पुकारते।। हिरन चले मैदान से। गीदड़ निकले माँद से। गया सिपाही फौज में।...
संकोच-भार को सह न सका पुलकित प्राणों का कोमल स्वर कह गये मौन असफलताओं को प्रिय आज काँपते हुए अधर। छिप सकी हृदय की आग कहीं ? छिप सका प्यार का पागलपन ? तुम व्यर्थ लाज की सीमा में हो बाँध रही प्यासा जीवन। तुम करूणा की जयमाल बनो, मैं बनूँ विजय का आलिंगन हम मदमातों की दुनिया में, बस एक प्रेम का हो बन्धन। आकुल नयनों में छलक पड़ा जिस उत्सुकता का चंचल जल कम्पन बन कर कह गई वही तन्मयता की बेसुध हलचल।...
रात ऊँघ रही है... किसी ने इन्सान की छाती में सेंध लगाई है हर चोरी से भयानक यह सपनों की चोरी है। चोरों के निशान — हर देश के हर शहर की हर सड़क पर बैठे हैं पर कोई आँख देखती नहीं, न चौंकती है। सिर्फ़ एक कुत्ते की तरह एक ज़ंजीर से बँधी किसी वक़्त किसी की कोई नज़्म भौंकती है।
तुम मृगनयनी, तुम पिकबयनी तुम छवि की परिणीता-सी, अपनी बेसुध मादकता में भूली-सी, भयभीता सी । तुम उल्लास भरी आई हो तुम आईं उच्छ्वास भरी, तुम क्या जानो मेरे उर में कितने युग की प्यास भरी । शत-शत मधु के शत-शत सपनों की पुलकित परछाईं-सी, मलय-विचुम्बित तुम ऊषा की अनुरंजित अरुणाई-सी ; तुम अभिमान-भरी आई हो अपना नव-अनुराग लिए, तुम क्या जानो कि मैं तप रहा किस आशा की आग लिए । भरे हुए सूनेपन के...
कौन सिखाता है चिड़ियों को चीं-चीं, चीं-चीं करना? कौन सिखाता फुदक-फुदक कर उनको चलना फिरना? कौन सिखाता फुर्र से उड़ना दाने चुग-चुग खाना? कौन सिखाता तिनके ला-ला कर घोंसले बनाना? कौन सिखाता है बच्चों का लालन-पालन उनको? माँ का प्यार, दुलार, चौकसी कौन सिखाता उनको? कुदरत का यह खेल, वही हम सबको, सब कुछ देती। किन्तु नहीं बदले में हमसे वह कुछ भी है लेती। हम सब उसके अंश कि जैसे तरू-पशु-पक्षी सारे। हम सब उसके वंशज...
तब कौन मौन हो रहता है? जब पानी सर से बहता है। चुप रहना नहीं सुहाता है, कुछ कहना ही पड़ जाता है। व्यंग्यों के चुभते बाणों को कब तक कोई भी सहता है? जब पानी सर से बहता है। अपना हम जिन्हें समझते हैं। जब वही मदांध उलझते हैं, फिर तो कहना पड़ जाता ही, जो बात नहीं यों कहता है। जब पानी सर से बहता है। दुख कौन हमारा बाँटेगा हर कोई उल्टे डाँटेगा। अनचाहा संग निभाने में किसका न मनोरथ ढहता...
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ तू चलती है पन्ने-पन्ने, मैं लोचन-लोचन बढ़ता हूँ मै खुली क़लम का जादूगर, तू बंद क़िताब कहानी की मैं हँसी-ख़ुशी का सौदागर, तू रात हसीन जवानी की तू श्याम नयन से देखे तो, मैं नील गगन में उड़ता हूँ तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ । तू मन के भाव मिलाती है, मेरी कविता के भावों से मैं अपने भाव मिलाता हूँ, तेरी पलकों की छाँवों से तू मेरी बात पकड़ती है, मैं तेरा मौन पकड़ता हूँ...
खेलूँगी कभी न होली उससे जो नहीं...
सब बुझे दीपक जला लूं घिर रहा तम...
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ...
कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियों। श्रवण...
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा...